Book Title: Sramana 2003 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 125
________________ ११९ आदि प्रमुख हैं। वि०सं० १७२५/ई० सन् १६६९ में इनके नायकत्त्वकाल में पं० रत्नसोम ने सुरत बन्दरगाह स्थित अजितनाथ जिनालय में श्रीपालचरितबालावबोध की रचना की। यह वही रत्नसोम हैं जिन्होंने द्रौपदीरास और उत्तराध्ययनसूत्र की प्रतिलिपि की थी।३९ वि० सं० १७२८/ई० सन् १६६२ में जिनसमुद्रसूरि के शिष्य सौभाग्यसमुद्र ने कर्णकौतूहल की प्रतिलिपि की। इनके एक अन्य शिष्य पं० समुद्र ने वि० सं० १७२६/ई० सन् १६६० में ऋषिमंडलप्रकरण की प्रतिलिपि की । जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर जिनसुन्दरसूरि हुए, जिनके द्वारा रचित मानतुंगमानवती चौपाई आदि कई कृतियां मिलती है १९। इसी प्रकार इनके शिष्य जिनउदयसूरि द्वारा वि०सं० १७५३/ई० सन् १६९७ में रचित गुणसुन्दरीचौपाई, वि० सं० १७७३/ ई० सन् १७१७ में रचित गुणावलीचौपाई, उदयविलास, सूत्रकृतांगबालावबोध आदि कृतियां प्राप्त होती हैं। वि०सं० १७८१/ई० सन् १७२५ और वि०सं० १८०६/ई० सन् १७५० के शिलालेखों में भी जिनउदयसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है।४२ए जिनसुन्दरसूरि के द्वितीय शिष्य क्षमासुन्दर ने वि०सं० १७६६/ई० सन् १७१० में ऋषिदत्ताचौपाई को पूर्ण किया जिसका प्रारम्भ वि०सं० १६९८/ई० सन् १६४२ में महिमासमुद्र ने किया था, परन्तु अपने जीवनकाल मे वे उसे पूर्ण न कर सके थे।४३ श्री अगरचन्द नाहटा ने इनके एक शिष्य क्षमासमुद्र का भी उल्लेख किया है जिनके द्वारा रचित ऋषिदत्ताचौपाई (वि० सं० १८वीं शती) नामक एक कृति प्राप्त होती है। जिनउदयसूरि के एक शिष्य पं० कनककीर्ति की प्रार्थनापर क्षुल्लकभावलिकाप्रकरणेसावचूरि की वि० सं० १७८५/ई० सन् १७२९ में प्रतिलिपि की गयी।५ जिनउदयसूरि के पट्टधर उनके द्वितीय शिष्य जिनचन्द्रसूरि 'तृतीय' हुए जिनके द्वारा वि०सं० १८१२/ई० सन् १७५६ में अपने गुरु के सम्मान में प्रतिष्ठापित एक चरणपादुका प्राप्त हुई है। ६ जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनेश्वरसूरि 'तृतीय हुए। वि०सं० १८४३/ई० सन् १७८७ और वि०सं० १८४६/ई० सन् १७९० के चरणपादुका के लेखों में इनका उल्लेख है। श्री नाहटा के अनुसार इनके पट्टधर का नाम नहीं मिलता। इनके पश्चात् जिनक्षेमचन्द्रसूरि हुए जो वि०सं० १९०२/ई० सन् १८४६ में स्वर्गस्थ हुए। इनके शिष्य एवं पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'चतुर्थ' वि०सं० १९३०/ ई० सन् १८७४ तक विद्यमान थे। महोपाध्याय विनयसागर जी के अनुसार जिनचन्द्रसूरि 'चतुर्थ' के पश्चात् यह शाखा समाप्त हो गयी।

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