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वि०सं० १६१७/ई० सन् १५६१ में जिनगुणप्रभसूरि के नायकत्त्व काल में पं० भक्तमंदिर ने मलयगिरि द्वारा रचित राजप्रश्नीयसूत्रवृत्ति२३ की प्रतिलिपि की। वि०सं० १६२३/ई० सन् १५६७ में पं० भक्तमंदिर ने ही जिनगुणप्रभसूरि के शिष्यों के पठनार्थ बृहत्कल्पसूत्र की प्रतिलिपि की।२४ ।।
जिनगुणप्रभसूरि द्वारा रचित चित्तसंभूतसंधि, सत्तरभेदीपूजास्तव, नवकारगीत, आदि कृतियां प्राप्त होती हैं। वि०सं० १६५५/ई० सन् १५९९ में इनका निधन हुआ। इन्होंने खरतरगच्छ की मूल परम्परा के आचार्य जिनमाणिक्यसूरि के पट्ट पर सुमतिधीर को बैठा कर जिनचन्द्रसूरि नाम प्रदान किया। यही आगे चलकर युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के नाम से विख्यात हुए।
जिनगुणप्रभसूरि के शिष्य एवं पं० भक्तमंदिर के गरुभ्राता मतिसागर ने वि०सं० १६५९ में कालकाचार्यकथा की प्रतिलिपि की२६। जैसलमेर स्थित स्मशान में उत्कीर्ण वि०सं० १६६३/ई० सन् १६०७ के शिलालेख के रचयिता भी यही थे। अपने गुरु के समय में ही इन्होंने वि०सं० १६४२ में सभाष्यतत्त्वार्थसूत्र की भी प्रतिलिपि की।२८
संवत् १६४२ वर्षे मगशिर (मार्गशीर्ष) सुदि ५ तिथौ श्रीजैसलमेरौ राउलश्रीभीमजीविजयराज्ये श्रीखरतरबेगडगच्छे भट्टारकश्रीजिनगुणप्रभसूरिविजयराज्ये पं० मतिसागरेण लिपिकृता।।
जिनगुणप्रभसूरि के एक शिष्य गुणसागर ने वि०सं० १५८२ में कालकाचार्यकथाबालावबोध की प्रतिलिपि की। इसकी प्रशस्ति में इन्होंने अपने एक गुरुभ्राता कमलसुन्दर का भी उल्लेख किया है।२८ए इस प्रकार जिनगुणप्रभसूरि के कुल ६ शिष्यों का उल्लेख प्राप्त हो जाता है:
जिनगुणप्रभसूरि
गुणसागर कमलसुन्दर मतिसागर पं०भक्तमंदिर ज्ञानमंदिर जिनेश्वरसूरि ‘द्वितीय'
(पट्टधर) जिनगुणप्रभसूरि के पट्टधर जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' हुए। इनके द्वारा रचित जिनगुणप्रभसूरिप्रबन्ध नामक एक कृति प्राप्त होती है जो वि०सं० १६५५ के बाद की रचना है। जैसलमेर स्थित बेगडगच्छीय उपाश्रय के बाहर बांये दीवाल पर वि०सं० १६७३ का एक शिलालेख उत्कीर्ण है जो इस समय बीच से दो खंडों में विभक्त हो गया है। इस अभिलेख में आचार्य जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' के समय उक्त उपाश्रय के द्वार के निर्माण का उल्लेख है। श्री पूरनचन्द नाहर२९ ने लेख की छाया प्रतिलिपि और मूलपाठ दिया है, जो इस प्रकार है :