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कर्पूरमंजरीनाम नाटिका राजशेखरी। तद्वयाख्या प्रेमराजेन कर्पूरकुसुमे कृता ॥ १ ॥
इति श्रीमत्सूर्यवंशोत्भव सहिगिलकुलावतंसश्रीमत्प्रयागदासाङ्गज श्रीप्रेमराजविरचिते कर्पूरकुसुमनाम्नि कर्पूरमंजरीभाष्ये चतुर्थं यवनिकान्तरं समाप्तमिति ।। छ ।। श्रीरस्तु शुभमस्तु श्रीदेवगुरुप्रसत्तेः ।। छ ।। संवत् १५३८ वर्षे श्रावण शुल्क सप्तम्यां सोमवासरे श्रीजेसलमेरुमहादुर्गे राउल श्रीदेवीदासविजयराज्ये श्रीखरतरवेगड़गच्छे श्रीजिनेश्वरसूरिसंतानीयश्रीजिनचन्द्रसूरिवराणामादेशेन पं० देवभद्रगणिवरेण वाचनार्थं श्रीकर्पूरमंजरीभाष्यमलेखि नन्दतादाचन्द्रार्कं वाच्यमानं लेखक-पाठकयो: कल्याणं भूयात् श्रीजिनधर्मप्रसादतः ।। छ ।।
वि० सं० १५४१/ई० सन् १४८५ में इन्होंने अपने गुरु जिनचन्द्रसूरि के आदेश से वज्जालग्गं की प्रतिलिपि की। जैसा कि इसी निबन्ध में प्रारम्भ में हम देख चुके हैं, इन्होंने अपने गुरु के आदेश से वि०सं० १५२८/ई० सन् १४७२ में स्यादतप्रक्रिया की प्रतिलिपि की थी। वि०सं० १५४१/ई० सन् १४८५ में ही इन्होंने अपने शिष्य महिमामुनि के पठनार्थ अभिधानचिन्तामणि की भी प्रतिलिपि की।२२
आचार्य जिनचन्द्रसरि के पट्टधर जिनमेरुसरि का वि०सं० १५७१/ई० सन् १५१५ में देहान्त हुआ, तत्पश्चात् इनके शिष्य जयसिंहसूरि ने बेगड़शाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। यह बात वि०सं० १५७८/ई० सन् १५२२ में लिखी गयी शीलोपदेशमाला प्रकरणबालावबोध की प्रतिलिपि की प्रशस्ति२२ से ज्ञात होती है जहां हम जयसिंहसूरि को बेगड़शाखा के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित पाते हैं। इनका नायकत्वकाल अल्प ही रहा। प्राप्तसूचनानुसार वि०सं० १५८२/ई० सन् १५२९ में इनके गुरुभ्राता जिनगुणप्रभसूरि खरतरगच्छ की इस शाखा के नायक बने।
वि०सं० १५९५/ई० सन् १५३९ में पं० ज्ञानमंदिरगणि ने आत्मपण्यार्थ अपने गुरु जिनगुणप्रभसूरि की वाचना हेतु वृत्तिसहभवभवनाप्रकरण की प्रतिलिपि की। इसकी प्रशस्ति२३ में इन्होंने अपनी गुर्वावली दी है, जो इस प्रकार है : जिनेश्वरसूरिसंतानीय जिनशेखरसूरि
जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनमेरुसूरि जिनगुणप्रभसूरि ज्ञानमंदिरगणि (वि० सं० १५९५/ई० सन् १५३९ में वृत्तिसह
भवभवनाप्रकरण के प्रतिलिपिकार)