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भारतीय कला को बुद्ध का अवदान
प्रो० अँगने लाल*
कला मानव की भावनाओं या कल्पनाओं का मूर्त स्वरूप है। भारतीय कला धर्म की चिर-संगिनी रही है और यही उसकी सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। डा० भोलानाथ तिवारी का मत है कि कला की कृतित्व शक्ति का किसी भी मानसिक तथा शारीरिक, उपयोगी या आनन्ददायी या दोनों से युक्त वस्तु के निर्माण के लिए किया गया कौशल युक्त प्रयोग है।
भारतीय संस्कृति में कला जीवन यापन का सफल ढंग माना गया है और इसीलिए कुछ विद्वान् कला के लिए, कोई जीवन यापन के लिए, कोई प्रचार के लिए, कोई सेवा के लिए और कोई मनोविज्ञान के लिए इसका प्रयोजन मानते हैं । भृर्तहरि ने तो यहाँ तक कह दिया है कि साहित्य, संगीत और कला से विहीन पुरुष पूँछ और सींग रहित पशु ही है
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साहित्य संगीत कला
विहीना। साक्षात् पशु पुंछ विषाण हीना ।।
स्पष्टतः वे साहित्य, संगीत और कला का महत्त्व एक समान स्वीकारते हैं। वास्तव में कला, जीवन यापन और आनन्दानुभूति से अलग अस्तित्व विहीन है। कला के वर्गीकरण के विषय में क्रोंचे, टी० डब्लू० प्रॉल, महादेवी वर्मा आदि विद्वान् कला को अविभाज्य मानते हैं, जबकि अरस्तू, हीगेल, ब्राउन आदि विद्वान् कलाओं के वर्गीकरण के पक्ष में हैं। सर मोनियर विलियम्स कला के दो वर्ग - बाह्य कला तथा आभ्यन्तर कला मानते हैं। हीगेल महोदय कला के विकास के तीन सोपान इस प्रकार मानते हैं
१. प्रतीकात्मक कला, २. शास्त्रीय कला, ३. भावात्मक कला
प्रतीकात्मक कला के अन्तर्गत वास्तुकला; शास्त्रीयकला के अन्तर्गत मूर्तिकला और भावात्मक कला में काव्य, चित्र आदि कलाएँ मानते हैं।
बौद्ध कला इन तीनों में समृद्ध है। जहाँ तक संगीत, नृत्य और वाद्य कला का प्रश्न है, बौद्ध भिक्षुओं के लिए वे पूर्णतः निषिद्ध थीं, लेकिन गृहस्थ बौद्ध अनुयायियों (उपासक उपासिकाओं) के लिए उसका निषेध नहीं था ।
* पूर्व कुलपति, डॉ० राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद। वर्तमान पता - आर- २५, सिद्धार्थ लेन, संजयपुरम्, फैजाबाद रोड, लखनऊ- २२६०१६