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पूर्वापर सम्बन्धविहीनता अथवा निरपेक्षता - निरपेक्षता संस्कृत गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषता है। गीतिकाव्य के प्रत्येक श्लोक स्वतन्त्र रूप से रसबोध कराने में समर्थ होते हैं।
भावातिरेकता - भावातिरेकता गीतिकाव्य का प्रमुख गुण है।
भावान्विति - गीतिकाव्य में रागात्मिक अनुभूति ही मूल भावना से अनुप्राणित रहती है। गीति का केन्द्र बिन्दु वही मूल भाव होता है, जिसका विश्लेषण - विस्तार कवि गीति के कलेवर में करता है। भावान्विति बुद्धि द्वारा नियन्त्रण का अभाव नहीं है। जब तक बुद्धि का समुचित नियन्त्रण नहीं प्राप्त होता तब तक भावावेश काव्य के रूप में स्थापित नहीं होता। जब बुद्धि भाव की अपेक्षा गौण होती है तब अभिव्यक्ति का माध्यम काव्य होता है, लेकिन जब बुद्धि की अपेक्षा भाव गौण हो जाता है तब वह काव्य नहीं गद्य कहलाता है। निस्संदेह गीतिकाव्य का संबंध कवि की रागात्मिक अनुभूति से होता है।
चित्रात्मकता - गीतिकाव्य की प्रमुख विशिष्टता है चित्रात्मकता। कवि या पाठक के सामने हृदयगत रागों का चित्र अंकित हो जाता है।
मार्मिकता - प्राकृत के मुक्तकों में मार्मिकता का समावेश सर्वत्र पाया जाता है। इसका एक उदाहरण है कि प्रोषितभर्तृका (जिसका पति परदेश गया है)। पुत्रवधु जब अपनी सास के पादवंदन के लिए गयी तो उसके हाथ के दोनों कंगन निकलकर गिर पड़े, यह देखकर उसके गुस्से वाली सास भी रो पड़ी। इससे उस सास के हृदय से मार्मिकता स्वत: ही अभिव्यक्त होने लगती है।२९
सरलता-सहजता एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति - गीतिकाव्य में सरलता, सहजता तथा स्वाभाविक अभिव्यक्ति की प्रधानता होती है।
वज्जालग्गं की छन्द-योजना - जैसे सज्जनों का व्यवहार उनके शील, गुण और सज्जनता की शोभा औचित्यपूर्ण व्यवहार से ही सम्भव है वैसे ही काव्य में गुण, सुन्दर छन्द एवं रसनियोजन तभी सौन्दर्योत्पादक होते हैं जब उनमें औचित्य का समावेश हो।३० वर्ण और शब्दयोजना के औचित्य के समान ही छन्दों का औचित्य भी काव्यगत सौन्दर्य के लिए अत्यावश्यक है। मार्मिक, सरस एवं रसमय अभिव्यक्ति के लिए गुणलंकारादि की तरह काव्य में छन्द-योजना की अनिवार्यता सार्वजनीन है।
अनादिकाल से यह परम्परा प्रचलित है कि अपने ज्ञान के संवर्द्धन एवं प्रचारप्रसार के लिए कवि एवं ऋषि छन्दों का आश्रय लेते थे। संपूर्ण ऋग्वेद छन्दमयी वाणी का प्रवाह ही है। जब कवि या कलाकार अपने संपूर्ण मनोवृत्तियों को एकत्रित कर स्थित हो जाता है, अपने लक्ष्य में अनन्य भाव से रम जाता है, तब उसी साधना के क्षणों में उसकी वाणी अनायास रूपवती नायिका की तरह प्रकट हो जाती है। वह उपमादि