Book Title: Sramana 2003 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ ४८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास सत्ता स्थापित हो। अत: मुस्लिम शासकों ने इस देश में इस्लाम को फैलाने और अपने पैर जमाने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की। इस्लाम की स्थापना और उसके पैर जमने के साथ ही उसका सम्पर्क अन्य भारतीय परम्पराओं से हुआ। भारतीय चिन्तकों ने इस्लाम के सांस्कृतिक और धार्मिक पक्ष पर ध्यान देना प्रारम्भ किया। फलत: भारतीय जनमानस ने यह पाया कि इस्लाम कर्मकाण्ड से मुक्त एक सरल और सहज उपासना-विधि है। इस पारस्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप देश में एक ऐसी सन्त परम्परा का विकास हुआ जिसने हिन्दूधर्म को कर्मकाण्डों से मुक्त कर एक सहज उपासना-पद्धति प्रदान की। हम देखते हैं कि १४वी, १५वीं और १६वीं शताब्दी में इस देश में निर्गण उपासना पद्धति का न केवल विकास हुआ, अपितु वह उपासना की एक प्रमुख पद्धति बन गई। उस युग में भारतीय जनमानस कठोर जातिवाद और वर्णवाद से तो ग्रसित था ही साथ ही, धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड का प्रभाव इतना हो गया था कि धर्म में से आध्यात्मिक पक्ष गौण हो गया था और मात्र कर्मकाण्डों की प्रधानता रह गयी थी। एक ओर धर्म का सहज आध्यात्मिक स्वरूप विलुप्त हो रहा था तो दूसरी ओर धार्मिक मतान्धता और सत्ता बल को पाकर मुस्लिम शासक देश भर में मन्दिरों, मूर्तियों को तोड़ रहे थे और मन्दिरों की सामग्री से मस्जिदों का निर्माण कर रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि मन्दिरों और मूर्तियों पर से लोगों की आस्था घटने लगी। मन्दिरों और मूर्तियों के विषय में जो महत्त्वपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित थीं वह आँखों के सामने ही धूलधूसरित हो रही थी। मुस्लिम धर्म की सहज और सरल उपासना-पद्धति भारतीय जनमानस को आकर्षित कर रही थी। इस सबके परिणामस्वरूप भारतीय धर्मों में मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड के प्रति एक विद्रोह की भावना जाग्रत हो रही थी। अनेक सन्त यथा- कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि हिन्दूधर्म में क्रान्ति का शंखनाद कर रहे थे। धर्म के नाम पर प्रचलित कर्मकाण्ड के प्रति लोगों के मन में समर्थन का भाव कम हो रहा था। यही कारण है कि इस काल में भारतीय संस्कृति में अनेक ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया जिन्होंने धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कराकर लोगों को एक सरल, सहज और आडम्बर विहीन साधना-पद्धति दी। जैनधर्म भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। गुप्तकाल से जैनधर्म में "चैत्यवास के प्रारम्भ के साथ-साथ कर्मकाण्ड की प्रमुखता बढ़ती गयी थी। कर्मकाण्डों के शिकंजे में धर्म की मूल आत्मा मर चुकी थी। धर्म पंडों और परोहितों द्वारा शोषण का माध्यम बन गया था। सामान्य जनमानस खर्चीले, आडम्बरपूर्ण आध्यात्मिकता से शून्य कर्मकाण्ड को अस्वीकार कर रहे थे। ऐसी स्थिति में जैनधर्म के दोनों ही प्रमुख सम्प्रदायों में तीन विशिष्ट पुरुषों ने जन्म लिया । श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में बनारसीदास तथा तारणस्वामी ।

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