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करने की क्रिया को निर्जरा कहते हैं जो दो रूपों में सम्पन्न होती है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। यद्यपि सविपाक निर्जरा में कर्मपुद्गल अपनी निश्चित अवधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वतः पृथक् हो जाते हैं, तथापि यह नैतिक साधना का कर्म' नहीं है। जैनविचारणानुसार नैतिक साधना तो सप्रयास पर अवलम्बित है। प्रयासपूर्वक कर्म - पुद्गलों के आत्मा से पृथक्करण की क्रिया को अविपाक निर्जरा कहते हैं और तप ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा अविपाक् निर्जरा होती है। इस प्रकार जैनयोग का प्रयोजन है - प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से पृथक कर उसकी स्वशक्ति को प्रकाशित करना और यही जैन विचाराणानुसार शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि / विशुद्धिकरण है। यही तप साधना है, योग साधना है। उत्तराध्ययन में कहा गया है - तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है, आबद्ध कर्मों को क्षय करने की पद्धति है । १५
पुनश्च तप शब्द निषेधात्मक अर्थ में त्याग-भावना को अभिव्यक्त करता है। त्याग चाहे वैयक्तिक स्वार्थ एवं हितों का हो अथवा वैयक्तिक सुखोलब्धियों का, तप कहलाने का अधिकारी है। इस रूप में तप, संयम, इन्द्रिय - निग्रह और देह - दण्डन के रूप में परिलक्षित होता है। तप मात्र त्यागना ही नहीं, अपितु उपलब्ध करना भी है। तप का केवल विर्सजनात्मक मूल्य ही नहीं, प्रत्युत सृजनात्मक मूल्य भी स्वीकृत है। अपने सृजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि है। यहाँ पर स्व- आत्मन्ं इतना व्यापक रूप लिए होता है कि उसमें 'स्व' या 'पर' पर भेद ही स्थिर ही नहीं रहता और एतदर्थ एक तपस्वी का आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण परस्पर विरोधी न होकर एक रूप होता है । तपस्वी के आत्म-कल्याण में लोक-कल्याण स्वतः समाविष्ट रहता है। वस्तुतः लोक-कल्याण ही आत्म-कल्याण है।
तप चाहे इन्द्रिय-संयम हो, चित्त निरोध हो अथवा लोक कल्याण या बहुजन हित हो, उसके महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन दोनों के लिए महत्त्व है। विशेषत: जैन परम्परा में तप के साथसाथ आत्म निर्यातन का विचार भी संयुक्त है। यह ज्ञान समन्वित तपस्या है। जैनसाधना समत्व - साधना रहित, अथवा भेद-विज्ञान के ज्ञान से रहित आत्म-निर्यातन तप को स्वीकार नहीं करती है। तप का जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरूप सार्वजनीन और सार्वकालिक है। सभी साधना पद्धतियाँ इसे स्वीकार कर परमश्रेय की ओर गमन करती हैं। साथ ही देश-काल के अनुसार किसी एक द्वार से साधकों को तप के उस भव्य प्रासाद में लाने का प्रयास करती हैं, जहाँ साधक अपने परमात्मा स्वरूप का दर्शन करता है। एतदर्थ भारतीय ऋषियों ने तप को विराट अर्थ में देखा और श्रद्धा ज्ञान, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आर्जव, मार्दव, क्षमा, संयम, समाधि, सत्य, स्वाध्याय, अध्ययन, सेवा, सत्कार प्रभूति समस्त गुणों को तप के रूप में स्वीकार किया । १६ चूंकि जैन विचारणा में तीर्थंकर अथवा ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकृत है इसलिये वह परमश्रेय