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मन की सांवेगिक अवस्थाओं से पूरी तरह मुक्त होकर समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करता है। ध्यातव्य है कि समाधिमरण को सल्लेखना कहते हैं, सम्यक् रीति से शरीर और कषाय को कृश करने का नाम सल्लेखना है। शरीर बाह्य है तथा कषाय आभ्यन्तर। धीरे-धीरे आहार को घटाने से शरीर कृश होता है और कषाय के कारणों से बचने से कषाय घटती है। शरीर को सुखा डालना और क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं घटे तो शरीर का कृश करना व्यर्थ है। आत्महत्या करने वाले की कषाय प्रबल होती है, क्योंकि जो राग-द्वेष या मोह के आवेश में आकर विष, शस्त्र, आग आदि द्वारा अपनी हत्या करता है वह आत्महत्या कहलाता है।
उपर्युक्त विवरण से यह भ्रान्ति हो सकती है कि यदि सल्लेखना ही सच्ची आराधना है अथवा मरते समय की आराधना ही सारभूत है तो मरने से पूर्व जीवन में चारित्र की आराधना क्यों करनी चाहिये? इसका उत्तर है, आराधना के लिए पूर्व में अभ्यास करना उचित है किन्तु सल्लेखना से मृत्यु आराधना की पराकाष्ठा है। सन्दर्भ:
भगवतीआराधना रचनाकार शिवार्य (आचार्य अपराजित सूरि रचित विजयोदया टीका सहित), सं० एवं अनु० - पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भाग १-२, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९७८ ई० (आगे से संक्षिप्त नाम भ० आ० के रूप में)। इसे मूलाराहणा (मूलाराधना) भी कहते हैं। इसमें २१६६ पद्य शौरसेनी प्राकृत में हैं। यह आठ परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं का निरूपण है। यह ग्रन्थ मुख्यतया मुनिधर्म का प्रतिपादन कर समाधिमरण का स्वरूप समझाता है। कुन्दकुन्द के समयसार की मंगलगाथा 'वंदित्तु सव्वसिद्धे' भगवती की मंगल गाथा 'सिद्धे जयप्पसिद्धे' में हमें शब्दश: और अर्थश: एक सी ही ध्वनि और भावना गूंजती हुई प्रतीत होती है। प्रो० सागरमल जैन भगवती आराधना का रचनाकाल पाँचवीं शती ई० से पूर्व मानते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि इस ग्रन्थ के रचयिता शिवार्य ने अपने तीन गुरुओं के लिये 'आर्य' विशेषण का प्रयोग किया है। साथ ही जिणनन्दी और सर्वगुप्त को गणि भी कहा है। मथुरा एवं विदिशा के अभिलेखों एवं कल्पसूत्र तथा नन्दीसूत्र की “स्थविरावलियों' से हमें यह ज्ञात होता है कि ईसा की पांचवीं शती तक मुनियों के नामों के आगे 'आर्य' तथा साध्वी के लिए 'आर्या' शब्द के प्रयोग का प्रचलन था तथा आचार्य को 'गणि' शब्द से अभिसूचित किया जाता था।