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प्रकार के उग्र नियमों से दोनों प्रकार के संयमों को नष्ट न करता हुआ वह अपने बल के अनुसार देह को कृश करता है । ३
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इस प्रकार से सल्लेखना करने वाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं।३४ यदि आचार्य होते हैं तो वे शुभ मुहूर्त में संघ को बुलाकर योग्य शिष्य पर उसका भार सौंपकर सबसे क्षमा याचना करते हैं और नये आचार्य को शिक्षा देते हैं। उसके पश्चात् संघ को शिक्षा देते हैं । ३५ इस प्रकार आचार्य संघ को शिक्षा देकर अपनी आराधना के लिये अपना संघ त्यागकर अन्य संघ में जाते हैं । ३६ समाधि का इच्छुक आचार्य निर्यापक की खोज में पाँच सौ सात सौ योजन तक भी जाता है। ऐसा करने में उसे बारह वर्ष तक लग सकते हैं । ३७ इस काल में यदि उसका मरण भी हो जाता है तो वह आराधक ही माना जाता है । ३८ योग्य निर्यापक को खोजते हुए जब वह संघ में जाता है तब उसकी परीक्षा की जाती है। आचार्य परीक्षा के लिये क्षपक से तीन बार उसके दोषों को स्वीकार कराते हैं। यदि वह तीनों बार एक ही बात कहता है तो उसे सरल हृदय मानते हैं किन्तु यदि वह उलटफेर करता है तो उसे मायावी मानते हैं और उसकी शुद्धि नहीं करते। इस प्रकार क्षपक की विशुद्धि, श्रुत का पारगामी और प्रायश्चित्त कर्म का ज्ञाता आचार्य करता है । ३९ परीक्षा के उपरान्त निर्यापक आचार्य अपने संघ के समस्त सदस्यों से पूछते हैं कि यह क्षपक हमारे संघ में आना चाहता है और यहाँ हमारी सहायता से समाधिमरण लेना चाहता है। यदि सभी सदस्य इसके लिये अपनी सहमति प्रदान कर देते हैं तो आचार्य क्षपक को स्वीकार कर लेते हैं । ४०
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इस प्रकार क्षपक समाधिमरण के लिये अनेकों उपक्रम करते हुए निर्यापकाचार्य द्वारा शिक्षा ग्रहण करता है। निर्यापकाचार्य संस्तारक पर आरूढ़ क्षपक को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि अब तुम्हारा मरण समय निकट आ गया है, तुम शुद्धिपूर्वक समाधि करो। तत्त्वश्रद्धान से मिथ्यादर्शन को, सरलता से माया को और निस्पृहता से निदान को दूर करके निःशल्य बनो। व्याधि, उपसर्ग, परीषह, असंयम, मिथ्याज्ञान आदि विपदाओं का प्रतिकार करके वैयावृत्य करने वाले वसति, संस्तारक, पिच्छी आदि का शोधन करके सल्लेखना करो। इन उपक्रमों के पश्चात् आराधना के फलस्वरूप जो मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है, उसे आराधना का फल कहते हैं। आराधना करते क्षपक केवलज्ञानी हो जाता है और वह सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त हो जाता है। उसकी जब मृत्यु होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । ४२
यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि समाधिमरण और आत्महत्या दोनों ही में स्वेच्छापूर्वक शरीर त्याग किया जाता है, फिर इन दोनों में अन्तर क्यों ? यह बता देना आवश्यक है कि जहाँ व्यक्ति मुख्य रूप से अपनी समस्याओं से ऊबकर मन की सांवेगिक अवस्था से ग्रसित होकर आत्महत्या करता है, वहीं समाधिमरण में व्यक्ति