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हुआ है। ठीक उसी प्रकार जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र के साथ-साथ सम्यक्तप का भी प्रतिपादन हुआ है। कालान्तर में ध्यान योग का अन्तर्भाव कर्मयोग में हो गया उसी प्रकार सम्यक् तप का अन्तर्भाव सम्यक् चारित्र में हुआ साथ ही प्राचीन युग में बौद्ध परम्परा में समाधि मार्ग का तथा गीता में ध्यानयोग का जो स्वतंत्र स्थान है, वही जैन परम्परा में सम्यक् तप को प्राप्त है। साधारणत: यह स्वीकृत है - जैन परम्परा में ध्यानमार्ग या समाधि मार्ग का विधान नहीं है, लेकिन यह भ्रान्त धारणा है, क्योंकि जिस प्रकार योग परम्परा में अष्टांग-योग और बौद्ध परम्परा में अष्टांग-मार्ग का विधान है, उसी प्रकार जैन परम्परा में इस योग मार्ग का विधान द्वादशांग योग के रूप में हुआ है। इसे ही सम्यक् तप का मार्ग कहा गया है। ध्यातव्य है कि चतुर्विध मार्ग (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप) का पूर्व में विवेचन किया जा चुका है।
आचार्य हरिभद्र सूरि ने जैनयोग को पंचायामी बताया है - स्थान, उर्ण, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन। इसमें से प्रथम दो कर्मयोंग हैं तो अन्तिम तीन ज्ञानयोग हैं। आसनादि क्रियाओं का सम्पादन स्थान योग है - स्वर, सम्पदा एवं माया पर समुचित ध्यान देना, शास्त्र विहित सूत्रों का पाठ उर्णयोग है। सूत्रार्थ का ज्ञान कर्मयोग है। धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करते समय मन को एकाग्र करना और बाह्य विषयों से मन को लौटाकर आत्मचिन्तन पर केन्द्रित करना / तन्मय हो जाना, अनालम्बन योग है। यहाँ 'स्थान' पर पातञ्जल योग के आसन के साथ, 'उर्ण और अर्थ' का स्वाध्याय के साथ, आलम्बन का ध्यान के साथ तथा अनालम्बन का समाधि के साथ साम्य है। हरिभद्र कृत पंचायामी योग का दूसरा रूप भी प्राप्त होता है, यथा - अध्यात्म (यथाशक्ति अणुव्रत या महाव्रतों को स्वीकार कर मैत्री आदि भावनाओं से युक्त होकर तत्त्वार्थ चिन्तन एवं मनन करना), भावना (अध्यात्म का एकाग्रतापूर्वक पुनरावर्तन), ध्यान (सूक्ष्म चिन्तन की वह अवस्था जो किसी शुभ विषय पर निश्चल दीप शिक्त के समान स्थिर हो), समता (इष्ट-अनिष्ट परिणामों के प्रति समान भाव रखना) और वृत्ति (परकीय शरीर और मन के सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाले वृत्तियों की अत्यन्त क्षीणता)।१४४
यदि योग अथवा तप नैतिक जीवन की अनिवार्य प्रक्रिया है तो उसे किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए। जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है। वह स्वीकार करता है - प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म - वर्गणाओं के पुद्गल राग - द्वेष या कषाय वृत्ति के कारण आत्मतत्त्व से एकीभूत होकर उसकी शुद्धसत्ता, शक्ति एवं ज्ञान-ज्योति को आवरित कर देते हैं। यह जड़ तत्त्व का संयोग ही विकृति है। अत: शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिये आत्मा की स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्म-पुद्गलों का विलगाव आवश्यक है। पृथक्