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है। जैन-साधना में परमश्रेय के रूप में जो मोक्ष है, वही धर्म है और जो धर्म है, वही 'समत्व-प्राप्ति' है। समस्त धर्मों का यही परमश्रेय - 'समत्व' जैन-धर्म के अन्तर्गत मानसिक क्षेत्र में 'अनासक्ति' या 'वीतरागता' के रूप में; सामाजिक क्षेत्र में 'अहिंसा' के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में 'अपरिग्रह' के रूप में अभिव्यक्त होता है, जो कि योग-साधना का प्रयोजन भी है।
जैन-साधना पद्धति में मन, वचन और शरीर की क्रियाओं से उत्पन्न आत्म प्रदेशों का कम्पन्न जिससे कर्म परमाणुओं का बंध होता है, योग है। इसके विपरीत अयोग है। वस्तुत: यही अयोग पातञ्जल योग के योग शब्द से साम्य रखता है। जीव मन, वचन और काय से सम्बन्धित योग-व्यापार के त्याग से अयोगत्त्व को प्राप्त होता है एवं अयोगी जीवन में कर्मों का बन्धन नहीं करता, तथापि पूर्वार्द्ध कर्मों की निर्जरा ही करता है। निषेधात्मक 'योग' से विपरीत विधेयात्मक 'संवर' शब्द जैनागमों में प्राप्त होता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्ष तत्त्व के साथ संयोग करने वाला धर्म व्यापार योग है। जैनविचारानुसार मन के दो प्रकार हैं - द्रव्यमन, जो पौद्गलिक है
और दूसरा भावमन, जो आत्मरूप है। द्रव्यमन, भावमन का मात्र साधन है। अत: उसका निरोध साधना की उच्चभूमि में स्वत: हो जाता है, तथापि आत्मरूप भावमन के लिए उसका परिणमन स्वाभाविक है, क्योंकि वह उसका लक्षण है। यह परिणमन स्वभाविक एवं वैभाविक दो रूपों में अभिव्यक्त होता है। जैनयोग के लिए कषायों से उत्पन्न आत्मिक परिणमन अर्थात् वैभाविक परिणमन का निरोध आवश्यक है, न कि आत्मा के स्वाभाविक परिणमन-ज्ञान, दर्शन एवं आनन्दिक गुणों का।
जैन विचारणानुसार योग वैभाविक परिणमनों/बाह्याभिमुखता से स्वाभाविक परिणमन/अन्तर्मुखता की ओर गमन है। जैनागमों में मन यत्र-तत्र चित्त के रूप में
अभिहित हुआ है, यथा-मुनि अव्याक्षिप्त चित्त से गोचरी न करे।५ 'अव्याक्षिप्त' पद से पातन्जल योग में वर्णित क्षिप्त एवं विक्षिप्त दोनों अवस्थाओं का संकेत प्राप्त होता है उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार - जो मोह से अभिभूत हैं, वे मूढ़ हैं। एकाग्रमन सनिवेशन से चित्त निरोध होता है। इसमें एकाग्र और निरोध दोनों ही अवस्थाएँ प्रतिबिम्बित हुई हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने इन अवस्थाओं को विक्षिप्त (अत्यन्त चंचल), यातायात (साधारण), श्लिष्ट (अनुकूल) एवं सुलीन मन (अनुकूल) कहा है। इसमें से योग के लिए सर्वथा उपर्युक्त एवं पातन्जल योग में वर्णित एकाग्र एवं निरोध से समानता रखने वाली श्लिष्ट मन व सुलीनमन है। संवर के चार आयाम - व्रत, अकषाय, इन्द्रिय व्यापार, निरोध एवं अक्रियत्व हैं। इसमें से 'व्रत' पातन्जल योग के यम से, ध्यान एवं समाधि से 'अक्रियत्व' का एवं 'निरोध' से प्रत्याहार का साम्य है। मन, वचन एवं काय का निग्रह गुप्ति है, घ्राण एवं काय की विवेक युक्त प्रवृत्ति, एकाग्रता एवं निरोध जैनागम की समिति व गुप्ति में समाविष्ट हैं। समिति सत्प्रवृत्ति की और