Book Title: Sramana 2003 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ ४३ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा के द्वारा स्थापित यह आचार-व्यवस्था बिना किसी मौलिक परिवर्तन के भद्रबाहु के युग तक चलती रही, किन्तु उसमें भी देश कालगत परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ आंशिक परिवर्तन तो अवश्य ही आये। उन परिस्थितिजन्य परिवर्तनों को मान्यता प्रदान करने हेतु आचार्य भद्रबाहु को निकल्प और स्थविरकल्प तथा उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद मार्ग के रूप में पुन: एक द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था को स्वीकृति देनी पड़ी। आचार्य भद्रबाहु के प्रशिष्य और स्थूलिभद्र के शिष्य आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती के काल में जैनधर्म में जिनकल्प और स्थविरकल्प - ऐसी दो व्यवस्थायें स्वीकृत हो चुकी थीं। वस्तुतः यह द्विस्तरीय आचार व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक हो गयी थी कि जिनकल्प का पालन करते हुये आत्म-साधना तो सम्भव थी, किन्तु संघीय व्यवस्थाओं से और विशेष रूप से समाज से जुड़कर जैनधर्म के प्रसार और प्रचार का कार्य जिनकल्प जैसी कठोर आचारचर्या द्वारा सम्भव नहीं था। अतः मुनिजन अपनी सुविधा के अनुरूप स्थविरकल्प और जिनकल्प में से किसी एक का पालन करते थे। फिर भी इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था के परिणामस्वरूप संघ में वैमनस्य की स्थिति का निर्माण नहीं हो पाया था। आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति के काल तक संघ में द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था होते हुए भी सौहार्द बना रहा, किन्तु कालान्तर में यह स्थिति सम्भव नहीं रह पायी । जहाँ जिनकल्पी अपने कठोर आचार के कारण श्रद्धा के केन्द्र थे वहीं दूसरी ओर स्थविरकल्पी संघ या समाज से जुड़े होने के कारण उस पर अपना वर्चस्व रख रहे थे। आगे चलकर वर्चस्व की इस होड़ में जैनधर्म भी दो वर्गों में विभाजित हो गया, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध हुये। आचार्य भद्रबाहु के द्वारा रचित 'निशीथ', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'बृहत्कल्प' एवं 'व्यवहारसूत्र' में उत्सर्ग और अपवाद के रूप में अथवा जिनकल्प और स्थविरकल्प के रूप में इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान की गयी है। जहाँ मूल आगम ग्रन्थों में अपवाद के क्वचित ही निर्देश उपलब्ध होते हैं वहाँ इन छेदग्रन्थों में हमें अपवाद - मार्ग की विस्तृत व्याख्या भी प्राप्त होती है। आगे चलकर आर्यभद्र द्वारा रचित नियुक्तियों में जिनभद्रगणि द्वारा रचित 'विशेषावश्यक' आदि भाष्यों में और जिनदासमहत्तर रचित चूर्णियों में इस अपवाद - मार्ग का खुला समर्थन देखा जाता है। यह सत्य है कि कोई भी आचार-व्यवस्था या साधना पद्धति अपवाद-मार्ग को पूरी तरह अस्वीकृत करके नहीं चलती । देश, कालगत परिस्थितियाँ कुछ ऐसी होती हैं जिसमें अपवाद को मान्यता देनी पड़ती है, किन्तु आगे चलकर अपवाद-मार्ग की यह व्यवस्था सुविधावाद और आचार शैथिल्यता का कारण बनती है जो सुविधा मार्ग से होती हुई आचार शैथिल्यता की पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है। जैन संघ में ऐसी परिस्थितियाँ अनेक बार उत्पन्न हुईं और उनके लिए समय-समय पर जैनाचार्यों को

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176