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१२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ होकर अन्य कार्यों के लिए उत्प्रेरित होता है। वह सचरित्र बनकर सामाजिक उत्तरदायित्वों को सम्पन्न करता है तथा धार्मिक दृष्टि से इष्टदेवों का पूजन, स्तुति, प्रार्थना, आराधना आदि करता है। संस्कार मार्गदर्शन का कार्य करता है जो आयु बढ़ने के साथ व्यक्ति के जीवन को एक निर्दिष्ट दिशा की ओर ले जाता है। संस्कारों के संयोजन और अनुगमन से आध्यात्मिक विकास भी होता है, क्योंकि समस्त संस्कारों का प्रधान आधार धर्म है। संस्कार व्यक्ति के अनुराग, स्नेह, प्रेम, हर्ष और विशाद को प्रतीकात्मक रूप में भी अभिव्यक्त करती है। अत: विभिन्न मतों में अनेक संस्कारों को सम्पन्न करने का विधान विहित है।
कर्मकाण्डों का आलोचक होने के कारण प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में संस्कारों का विस्तृत उल्लेख नहीं है। बारह अंगों में सातवें अंग उपासकदशाङ्ग में संस्कारों का उल्लेख है लेकिन सर्वप्रथम जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराण में गर्भ से लेकर निर्वाणपर्यन्त सभी संस्कारों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है। पुराणों के रचनाकाल के समय संस्कारहीन व्यक्ति को शूद्र समझा जाता था। अत: पुराणकारों ने जैन अनुयायियों को सामाजिक सम्मान प्रदान करने के लिए संस्कारों का विधान विहित किया। जैनाचार्य संस्कारों के विषय में हिन्दू एवं अन्य व्यवस्थापकों के सामान्य प्रवृत्ति के अनुकूल हैं; किन्तु युग विशेष की परिवर्धित परिस्थितियों के कारण इनके वर्णन अधिकांशत: भिन्न हैं। जैन संस्कारों में व्यक्तित्व निर्माण और विकास के लिए वैदिक धर्म के समान ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक योग्यता विद्यमान है। वैदिक संस्कार गर्भाधान से अन्त्येष्टि के बीच गतिशील रहते हैं जबकि जैन संस्कार आधान से निर्वाणपर्यन्त सम्पन्न होते हैं।
जिस प्रकार आत्मा की पवित्रता के लिए विकारशोधन की गुणस्थान प्रणाली मान्य है, उसी प्रकार देह शुद्धि और पात्रत्व विकास के लिए संस्कार भी अपेक्षित हैं। युगों के ज्ञान और अनुभव के माध्यम से जैनाचार्यों ने यह अनुभव प्राप्त किया कि प्राणी जीव और अजीव इन दो तत्त्वों का संयोग है। इस संयोग को संस्कार द्वारा परिष्कृत कर जीव के मौलिक चेतन स्वरूप का ज्ञान सम्भव है। संस्कार जीवन की । आत्मवादी और भौतिक धारणाओं के बीच मध्यमार्ग का काम करते हैं। जिनसेनाचार्य के अनुसार जीवों का जन्म दो प्रकार से होता है शरीर जन्म तथा संस्कार जन्म। शरीर जन्म में प्रथम शरीर का क्षय हो जाने पर दूसरे पर्याय में अन्य शरीर की प्राप्ति होती है तथा संस्कार जन्म में संस्कारों के योग से आत्मलाभ प्राप्त पुरुष को द्विजत्व की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार मृत्यु भी दो प्रकार का है- शरीर मृत्यु और संस्कार मृत्यु। जो व्यक्ति यथाविधि संस्कारों का सम्पादन करता है उसे उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होती है। संसार के भवबन्धन, जन्म, वृद्धावस्था और मृत्यु से उन्हें मुक्ति मिलती है। ऐसे पुरुष श्रेष्ठ जाति में जन्म ग्रहण कर सद्गृहस्थ तथा परिव्रज्या को व्यतीत कर स्वर्ग
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