________________
खरतरगच्छ-जिनभद्रसूरिशाखा का इतिहास : ५७
टीका ग्रन्थ
४. संदेहदोहावली लघुवृत्ति वि०सं० १४६५
५. गुरुपात्रंत्र्यलघुवृत्ति ६. उपसर्गहरस्त्रोत्रवृत्ति
७. भावारिवारणस्त्रोत्रवृत्ति
८. रघुवंशसर्गाधिकार
६. नेमिजिनस्तुतिटीका
इनके अतिरिक्त इनके द्वारा बड़ी मात्रा में रचे गये छोटे-छोटे छन्द, स्तुतियां, रास, वीनती, विज्ञप्ति, स्तव, स्त्रोत्र आदि प्राप्त होते हैं । इस सम्बन्ध में विस्तार के लिए द्रष्टव्य - पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय जी द्वारा सम्पादित और जैन आत्मानन्दसभा, भावनगर द्वारा १६१६ ई० में प्रकाशित विज्ञप्ति त्रिवेणी तथा महोपाध्याय विनयसागर जी द्वारा सम्पादित एवं सुमति सदन, कोटा द्वारा १६५३ ई० में प्रकाशित अरजिनस्तव की भूमिकायें ।
जिनभद्रसूरि के एक शिष्य समयप्रभ उपाध्याय ने वि० सं० १४७५ के पश्चात् कभी जिनभद्रसूरिपट्टाभिषेकरास की रचना की। उत्तराध्ययनसूत्र की सर्वार्थ- सिद्धिवृत्ति के रचयिता, कल्पसूत्र की विभिन्नस्वर्णाक्षरी प्रतियों के प्रलेखक के रूप में विख्यात कमलसंयम उपाध्याय भी इन्हीं के आज्ञानुवर्ति थे ।
शीलोपदेशमालाबालावबोध (रचनाकाल वि० सं० १५२५), योगप्रकाशबालावबोध (वि०सं० १६वीं शती); योगशास्त्रबालावबोध (वि०सं० १६वीं शती) आदि विभिन्न कृतियों के रचनाकार मेरुसुन्दरगणि' ने अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में अपने गुरु के रूप में रत्नमूर्ति और प्रगुरु के रूप में आचार्य जिनभद्रसूरि का उल्लेख किया है -
जिनभद्रसूरि रत्नमूर्ति मेरुसुन्दरगणि (योगशास्त्रबालावबोध आदि विभिन्न कृतियों के रचनाकार)
1
इसी शाखा में हुए देवकीर्ति के शिष्य देवरत्न द्वारा रचित शीलवतीचौपाई नामक एक कृति प्राप्त होती है। मुनि पुण्यविजय के हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह के गुजराती विभाग में इस कृति की वि०सं० १७२६/ई०स० १६७० में लिखी गयी एक प्रति संरक्षित है, जिसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह कृति वि०सं० १५६६ में रची गयी थी ।
इसके विपरीत श्री मोहनचंद देसाई को प्राप्त इस कृति की एक प्रति की प्रशस्ति में इसका रचनाकाल वि०सं० १६६८ / ई० स०१६४२ में देते हुए रचनाकार की गुरु- परम्परा भी दी गयी है, जो इस प्रकार है:
संवत सोल अठाणु काती समे रे, वालसीस (सर) नयर मझारी,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org