Book Title: Sramana 2003 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 65
________________ अमरमाणिक्य जिनभद्रसूरिशाखा के साधुकीर्ति ( सुप्रसिद्ध रचनाकार) खरतरगच्छ-जिनभद्रसूरिशाखा का इतिहास : ६१ 1 विमलकीर्ति साधुसुन्दर (वि०सं० १६७७ - ८३ के मध्य रचित ५ रचनायें उपलब्ध) 1 विजयहर्ष 1 कनकसोम धर्मसिंह अपरनाम धर्मवर्धन (वि०सं० १७२६ में अट्ठाइसलब्धिस्तवन द्रष्टव्य-धर्मवर्धनग्रन्थावली - संपा० नाहटाद्वय के रचनाकार) Jain Education International साधुसुन्दर की रचनायें १. उक्तिरत्नाकर रचनाकाल - वि०सं० १६७०-७४ के मध्य २. धातुरत्नाकर रचनाकाल - वि०सं० १६८० कार्तिकवदि १५ ३. शब्दरत्नाकर अपरनाम शब्दभेदनाममाला ४. पार्श्वस्तुति रचनाकाल - वि०सं० १६८३ ५. युक्तिसंग्रह वि०सं० १६८१ में लिखी गयी अभिधानचिन्तामणिनाममाला की प्रशस्ति" में प्रतिलिपिकार राजकीर्तिगणि ने अपनी गुरु-परम्परा निम्नानुसार दी है : अमरमाणिक्य क्षमारंग गणि वाचनाचार्य रत्नलाभ गणि राजकीर्ति गणि (वि०सं० १६८१ / ई० स०१६२५ में अभिधानचिन्तामणिनाममाला के प्रतिलिपिकार) अमरमाणिक्य के दूसरे शिष्य कनकसोम, जिनका ऊपर उल्लेख आ चुका है, की परम्परा में हुए पं० मानसिंह ने वि०सं० १७१४ में परिशिष्टपर्व की प्रतिलिपि की, जिसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा है, जो इस प्रकार है: कनकमणि लक्ष्मीप्रभगणि (वि०सं० १७१४ / ई०स० १६५८ में परिशिष्टपर्व के प्रतिलिपिकार) सोमकलशगणि पं० मानसिंह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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