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६६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३
जिनभद्रसूरिशाखा से ही सम्बद्ध थे। इन्होंने अपनी गुर्वावली निम्नानुसार दी
जिनभद्रसूरि..............→हेमराजगणि-→लाभतिलकमुनि
चारित्रकीर्ति
सुखकीर्ति L(वि०सं०१६६६/ई०स०१६१० में |
प्रश्नव्याकरणसूत्रवृत्ति के प्रतिलिपिकार) औपपातिकसूत्र की वि०सं०/१७१७ में लिखी गयी प्रति की प्रशस्ति" में प्रतिलिपिकार कमलनंदन मुनि ने भी स्वयं को जिनभद्रसूरिशाखा से सम्बद्ध बतलाते हुए अपनी गुर्वावली दी है, जो इस प्रकार है: ।
जिनभद्रसूरि......... →विजयमंदिर→सौभाग्यमेरु→इलाचीनिधान →पंजीवरत्न→कमलनंदनमुनि(वि०सं०१७१७/ई०स०१६६१ में औपपातिकसूत्र के प्रतिलिपिकार)
जिनभद्रसूरिशाखा की पूर्वप्रदर्शित दोनों तालिकाओं के मुनिजनों और उपरोक्त चारित्रकीर्ति एवं कमलनंदन मुनि आदि के बीच क्या सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता।
विक्रम सम्वत् की १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से इस शाखा से सम्बद्ध साक्ष्यों की विरलता को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस समय के पश्चात् इस शाखा के अनुयायियों की संख्या कम होने लगी। महोपाध्याय विनययागर जी के अनुसार इस शाखा के कुछ मुनिजन आज भी विद्यमान हैं।
संदर्भ
१. मुनि कांतिसागर, शत्रुजयवैभव, कुशल पुष्प४, जयपुर १६६०ई०, - पृष्ठ ५२, २. वही ३. वही, पृष्ट ५८ ४. द्रष्टव्य- जिनभद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण
लेखों की तालिका५. मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग१, नवीन संस्करण,
संपा०- डा० जयन्त कोठारी, अहमदाबाद १६८६ई०, पृष्ट ५७.
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