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६४ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३
विक्रमसम्वत् की सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुए मुनि नयरंग भी खरतरगच्छ की इसी शाखा से सम्बद्ध थे। उनके द्वारा रचित विभिन्न कृतियां प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार हैं
१. विधिकंदली (प्राकृत) २. विधिकंदली टीका (संस्कृत) वि०सं० १६२५ ३. परमहंससंबोधचरित (संस्कृत) वि०सं० १६२४ ४. मुनिपतिचौपाई (मरु-गूर्जर) वि०सं० १६१५ ५. सत्तरभेदीपूजा (मरु-गुर्जर) वि०सं० १६१८ ६. अर्जुनमालीसंधि (मरु-गूर्जर) वि०सं० १६२१ ७. केशीप्रदेशीसंधि (मरु-गूर्जर) ८. गौतमपृच्छा (मरु-गुर्जर) ६. गौतमस्वामीछंद (मरु-गूर्जर) १०. जिनप्रतिमाछत्तीसी (मरु-गूर्जर)
११. जिनप्रतिमाचौबीसी (मरु-गूर्जर) मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इनकी गुर्वावली दी है, जो इस प्रकार है :
जिनभद्रसूरि शाखा"......................समयध्वज-ज्ञानमंदिर→ गुणशेखर→ नयरंग (रचनाकार)
नयरंग के शिष्य विनयविमल हुए जिनके द्वारा रचित अनाथीसाधुसंधि (वि०सं०१६४७/ई०स०१५६१ अरहन्नकरास आदि कृतियां मिलती हैं।"
__इसी प्रकार नयरंग के प्रशिष्य और विनयविमल के शिष्य राजसिंह द्वारा रचित विद्याविलासरास (वि०सं० १६७६), चम्पावतीचौपाई, आरामशोभाचौपाई (वि०सं० १६८७) तथा कई गीत एवं स्तवन आदि प्राप्त होते हैं। राजसिंह की परम्परा आगे चली अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में हमारे पास कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है किन्तु वि०सं०१७५४ में लिखी गयी अमरसेनवयरसेनचतुष्पदी की प्रति की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार पंडित मानसिंह ने अपनी गुरु-परम्परा दी है जिसका प्रारम्भ भी वाचनाचार्य समयध्वज से ही होता है:
जिनभद्रसूरि...............वाचनाचार्य समयध्वज→वाचक ज्ञानमंदिर →वाचक गुणशेखर-→वाचक नयरंग-→वाचक विनयविमल-→वाचक धर्ममंदिर →उपा० पुण्यकलश→उपा० जयरंगजीवाचक तिलकचंद्र->पंडित मानसिंह (वि०सं०१७५४/ई०स०१६९८ में अमरसेनवयरसेनचतुष्पदी के प्रतिलिपिकार)
समयध्वज से प्रारम्भ उपरोक्त दोनों गुर्वावलियाँ के परस्पर समायोजन से एक तालिका निर्मित होती है, जो इस प्रकार है:
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