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साहित्य सत्कार : १३२
आचार्य विजय जयंतसेनसरि ने इस ग्रन्थ को चार अध्यायों में विभक्त किया है- प्रथम अध्याय में गणधरवाद का परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्याय में संशयों की पृष्ठभूमि को वैदिक परम्परा की दृष्टि से, तीसरे अध्याय में प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गणधरों के व्यक्तित्व का परिचय एवं चतुर्थ अध्याय को सबसे महत्त्वपूर्ण अध्याय कह सकते है कि इसमें ग्यारहों गणधरों के संशय का विस्तारपूर्वक समाधान किया गया है जो कि काफी कठिन कार्य है। आचार्य जी द्वारा किया गया यह प्रयास सचमुच में सराहनीय एवं जैन धर्म समुदाय के लिए अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ अन्य धर्म सम्प्रदाय के लोगों के लिए एवं दर्शन के शोधछात्रों के लिए महत्त्व रखती है।
प्राकृतविद्या, वर्ष १३ अंक ४, वर्ष १४ अंक १, जनवरी-जून २००२, प्रधान सम्पादक- प्रो० राजाराम जैन, आकार- डिमाई, पृष्ठ २१६, प्रका०- कुन्दकुन्द भारती, १८वीं, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली ११००६७, मूल्य १५
रुपये।
श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) जैन शोध-संस्थान द्वारा प्रकाशित इस शोध पत्रिका के आलेखों का संकलन है। जो वैशालिक महावीर पर आधारित है। इसमें सम्पादक द्वारा प्रस्तुत लेख भगवान् महावीर के उपदेशों की वर्तमान सन्दर्भ में उपयोगिता आज के समाज के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसी तरह श्रीमती रंजना जैन का दार्शनिक लेख- ‘सांख्य दर्शन, परम्परा और प्रभाव' काफी सराहनीय है। अन्य विद्वानों में प्रो० (डॉ०) शशि प्रभा जैन जी का लेख-ॐ ‘सम्राट अशोक के शिलालेखों में उपलब्ध महावीर-परम्परा के पोषक-तत्त्व' बहुत ही व्यवस्थित व परिमार्जित है।
इस प्रकार हम कह सकते है कि कुन्दकुन्दभारती संस्थान द्वारा प्रकाशित यह ग्रन्थ विशेष रूप से इतिहास एवं दर्शन के शोधार्थियों के लिए उपयोगी है।
आराधना प्रकरण, रचनाकार-- श्री सोमसूरि, सम्पा०- डॉ० जिनेन्द्र जैन एवं श्री सत्यनारायण भारद्वाज, प्राकृत एवं जैनागम विभाग, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं, आकार- डिमाई, पृष्ठ ८+५९, प्रका०-- जैन अध्ययन एवं सिद्धान्त शोध संस्थान द्वारा श्रद्धा इलेक्ट्रिकल्स, पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर (म०प्र०) प्रथम संस्करण २००२, मूल्य ७५/- रुपये।
प्रकरण ग्रन्थों की परम्परा में आराधना प्रकरण लगभग १२वीं शताब्दी में श्री सोमसूरि द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ माना गया है। इस ग्रन्थ में कुल ७० गाथाओं की चर्चा है। इस प्रकरण ग्रन्थ की रचना निर्वाण प्राप्त करने के लिए की गयी है। रचनाकार ने इसमें और दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप पर बल दिया है।
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