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खरतरगच्छ-जिनभद्रसूरिशाखा का इतिहास : ५६
वि०सं०१६७६ से पूर्व बतलाया है। चूंकि मुनि धर्ममेरु की ऊपर कथित एक रचना सुख-दुःख विपाकसंधि का रचनाकाल वि०सं० १६०४ सुनिश्चित है, अतः दूसरी कृति एकविंशतिस्थानकप्रकरण का रचनाकाल भी विक्रम सम्वत की सत्रहवीं शती के प्रथम या द्वितीय दशक के आसपास ही होना चाहिए न कि वि०सं० १६७६ के लगभग, जैसा कि श्री नाहटा ने बतलाया है।
रघुवंशमहाकाव्य के टीकाकार के रूप में भी धर्ममेरु नामक एक खरतरगच्छीय मुनि का उल्लेख मिलता है। श्री अगरचन्द नाहटा ने इस धर्ममेरु को उपरोक्त चरणधर्म के शिष्य धर्ममेरु से अभिन्न बतलाया है" जबकि अन्यत्र इन्हें मुनिप्रभगणि का शिष्य बतलाया गया है। चूंकि यह कति अद्यावधि अप्रकाशित है और इसकी पाण्डुलिपियां भी अध्ययनार्थ सुलभ नहीं हैं अतः इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ भी कह पाना कठिन है।
इस प्रकार उपरोक्त साक्ष्यों से हमें जिनभद्रसूरि के छह शिष्योंजयसागर उपाध्याय, रत्नमूर्ति, दयाकमल, कमलसंयमगणि, समयप्रभ और महोपाध्याय सिद्धान्तरुचि का उल्लेख प्राप्त हो जाता है।
जिनभद्रसूरि शाखा में हुए मुनि कनकसोम द्वारा रचित हरिकेशीसंधि (रचनाकाल वि०सं० १६४०/ई०स०१५८४) की प्रशस्ति" में रचनाकार द्वारा दी गयी लम्बी गुर्वावली मिलती है, जो इस प्रकार है:
जिनभद्रसूरि-→वाचक पद्ममेरु→मतिवर्धन→मेरुतिलक-→दयाकलश-→ अमरमणिक्य-→कनकसोम (वि०सं० १६४०/ई० सन् १५८४ में हरिकेशीसंधि के रचनाकार)
___ मुनि कनकसोम द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं, जो इस प्रकार हैं
चारित्रपंचकअवचूरि रचनाकाल वि०सं० १६१५ कालकाचार्यकथा
रचनाकाल वि०सं० १६३२ गुणस्थानविवरणचौपाई रचनाकाल वि०सं० १६३१ जिनपालितजिनरक्षितरास रचनाकाल वि०सं० १६३२ आषाढ़भूतिधमाल रचनाकाल वि०सं० १६३२ आद्रककुमारधमाल रचनाकाल वि०सं० १६४४ हरिबलसंधि
रचनाकाल वि०सं० १७वीं शती मध्य मंगलकलशरास
रचनाकाल वि०सं० १६४३ नेमिनाथफागु
रचनाकाल वि०सं० १७वीं शती मध्य मेघकुमाररास
रचनाकाल वि०सं० १७वीं शती मध्य जयतिपदवेलि
रचनाकाल वि०सं० १७वीं शती मध्य
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