Book Title: Sramana 2003 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 60
________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ . खरतरगच्छ की इस शाखा के आदिपुरुष जिनभद्रसूरि का साहित्य संरक्षक, संवर्धक एवं पुनरुद्धारक आचार्यों में प्रथम स्थान है। इनके साहित्योद्धार के परिणामस्वरूप जालौर, जैसलमेर, देवगिरि, नागौर, अणहिलपुरपत्तन आदि नगरों में विशाल ग्रन्थभंडार स्थापित किये जा सके। इसके अतिरिक्त इनकी प्रेरणा से खंभात, कर्णावती, माण्डवगढ आदि स्थानों पर भी ग्रन्थभंडारों की स्थापना हुई। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इनके द्वारा स्थापित जैसलमेर का विश्वविख्यात ग्रन्थभंडार आज भी विद्यमान है और इन्हीं के नाम से जाना जाता है। आचार्य जिनभद्रसूरि आजीवन ग्रन्थभंडारों की स्थापना और इनके निमित्त प्रतियों के संशोधन-परिमार्जन में लगे रहे, इसी कारण इनके वैदुष्य के अनुकूल इनकी कोई कृति नहीं मिलती, फिर भी इनके द्वारा रचित कुमारसंभवटीका, जिनसत्तरीप्रकरण आदि कुछ रचनायें मिलती हैं। इनके द्वारा स्थापित बड़ी संख्या में जिनप्रतिमायें प्राप्त होती हैं जो वि० सं० १४७६ से वि० सं० १५१४ तक की हैं। उपाध्याय जयसागर, जिनका उपर उल्लेख आ चुका है, जिनराजसरि से दीक्षा ग्रहण की। जिनराजसूरि के शिष्य एवं पधर आचार्य जिनवर्धनसरि आपके विद्यागुरु थे। दैवी प्रकोप के कारण जब वि०सं० १४७५ में जिनवर्धनसूरि के स्थान पर जिनभद्रसूरि को गच्छ नायक बनाया गया तो गच्छ में भेद हो गया और जिनवर्धनसूरि एवं उनके अनुयायी मूल परम्परा से पृथक हो गये और उनसे खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा अस्तित्व में आयी। जिनभद्रसूरि ने जयसागर जी को अपने पक्ष में करने के लिए उपाध्याय पद से अलंकृत किया। वि०सं०१५१५ आषाढ़ वदि १ के आबू स्थित खरतरवसही के लेखों से ज्ञात होता है कि जयसागर जी ओसवाल वंश के वरडागोत्रीय थे। इनके पिता का नाम आसराज व माता का नाम सोखू था। इनके संसार पक्षीय भ्राता मांडलिक ने आबू स्थित खरतरवसही का निर्माण कराया और वि०सं०१५१५ आषाढ़ वदि १ को आचार्य जिनचन्द्रसूरि के हाथों प्रतिष्ठा करायी। जयसागर उपाध्याय अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इनके द्वारा रची गयी विभिन्न रचनायें मिलती हैं जो इस प्रकार हैं मौलिक ग्रन्थ १. पर्वरत्नावली वि०सं० १४७८ २. विज्ञप्तित्रिवेणी वि०सं० १४८४ ३. पृथ्वीचन्द्रचरित्र वि०सं० १५०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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