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धर्म और धर्मान्धता : परेशान हो जाते थे और वह उन लोगों को देख-देखकर मन ही मन प्रसन्न होता था । ऐसा क्रम कुछ दिनों तक चलता रहा, परन्तु एक रात जब वह ऐसा कर रहा था तो किसी ने उसे देख लिया । सबेरा होने पर सभी साधु इकट्ठा हुए और उससे पूछा कि तुम ऐसा क्यों करते हो। तुम क्यों सभी लोगों को कष्ट देते हो । उत्तर देते हुए चोर - साधु ने साफ-साफ कही
चोरी से गए तो क्या तुम्माफेरी से भी गए ।
वह व्यक्ति दिल का साफ था, इसलिए उसने अपनी प्रवृत्ति को स्पष्टतः बता दिया, किसी प्रकार का कुतर्क नहीं किया। यह बात प्रायः सबके साथ होती है। मात्र वस्त्र धारण कर लेने से कुछ नहीं होता है। सच्चा साधु बनने में कई जन्म लग जाते हैं । तुलसीदासजी ने कहा है
जनम जनम मुनि जतन कराहीं । अन्त राम कहि आवत नाहीं । ।
अर्थात् कई जन्मों तक साधना करने के बाद भी मुनि अपने अन्तिम समय में 'राम' उच्चारण करने में असमर्थ रहता है। कारण, उसे साधुता की प्राप्ति नहीं हो पाती है। हजारों में शायद एक-दो संन्यासी या मुनि ऐसे होते हैं जिन्हें सिद्धि प्राप्त होती है या जो मुक्त हो जाते हैं अन्यथा अनेकानेक तथाकथित साधु सम्पूर्ण जीवन धर्मान्धता में ही व्यतीत कर देते हैं। वे स्वयं धर्मान्ध होते हैं और दूसरों को भी धर्मान्ध बनाते हैं, क्योंकि जिसे स्वयं धर्म का ज्ञान नहीं होता है वह दूसरों को धर्म-मार्ग पर कैसे निर्देशित कर सकता है। कहा गया है
सिंहों के लेहरे नहीं, हंसों की नहीं पांत । लालों की नहीं बोरियां, साधु न चले जमात ।।
अर्थात् सिंह इतने अधिक नहीं होते कि वे झुण्डों में देखे जाएं हंसों की संख्या भी इतनी नहीं होती है कि उनकी पंक्तियां देखी जाएं मूल्यवान् द्रव्य लालों की संख्या बहुत कम होती है। इसलिए उन्हें बोरियों में कसने की बात नहीं पायी जाती है। इसी तरह साधु भी कोई बड़ी मुश्किल से मिल पाता है । अतः साधुओं की जमात नहीं होती है।
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किन्तु धर्मान्ध साधु- मात्र इसमें विश्वास करता है कि वह किसी न किसी बहाने अधिक से अधिक लोगों की भीड़ एकत्रित करे और लोग उसकी जयकार करें। जो साधु जितनी अधिक भीड़ इकट्ठी कर पाता है वह उतना ही बड़ा माना जाता है। तथाकथित साधु चाहता है कि उसके द्वारा आयोजित सभा में सामान्य लोग ही नहीं बल्कि राजनेता, बड़े विद्वान्, सरकारी उच्चाधिकारी आदि आवें ताकि वह अपने अनुयायियों को यह बता सके कि वह कितना महान् है ।
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