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४६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ होने पर समाप्त हो जाते हैं, किन्तु धर्मान्धता हटाना कठिन ही नहीं असम्भव-सा है।
प्राय: यह समझा जाता है कि विभिन्न सम्प्रदायों के असंख्य अनुयायीगण जो अपने गुरुजन या धर्म पथ-प्रदर्शकों की जय-जयकार मनाते हुए कभी थकते नहीं हैं, धर्मान्ध होते हैं उनके गुरुजन धर्मान्ध नहीं होते हैं; किन्तु बात ऐसी नहीं होती है। धर्मान्धता तो धर्म-गुरुओं या धर्म-पथ-प्रदर्शकों से ही प्रारम्भ होती है, जो धीरे-धीरे अनुयायियों तक फैल जाती है। आप मेरी बात से आश्चर्यित हो रहे होंगे, परन्तु ध्यानपूर्वक देखने पर आप स्पष्टत: समझ जाएंगे कि किस प्रकार धर्मान्धता कहाँ अंकुरित होकर पल्लवित एवं पुष्पित होती है।
जब कोई व्यक्ति किसी सम्प्रदाय में दीक्षित होता है तो वह उस सम्प्रदाय के नियमानुसार वस्त्रादि उपयोगी वस्तुओं को ध्यारण करता है जो उस सम्प्रदाय के प्रतीक होते हैं। वह उन्हीं प्रतीकों से पहचाना जाता है। सम्प्रदायों में साधुओं के लिए विभिन्न शब्दों के प्रयोग देखे जाते हैं, जैसे वैदिक-परम्परा में संन्यासी, जैन-परम्परा में श्रमण या मुनि तथा बौद्ध-परम्परा में साधु के लिए भिक्खु शब्द प्रचलित हैं। वैदिक तथा बौद्ध-परम्पराओं के साधु प्राय: गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं। जैन-परम्परा के मुनिजनों में जो दिगम्बर हैं वे कोई भी वस्त्र नहीं धारण करते हैं तथा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं और स्थानकवासी एवं तेरापंथी सम्प्रदाय के मुनिजन तो श्वेत वस्त्र के साथ-साथ मुख पर पट्टी भी बांधते हैं। दीक्षा लेने के बाद व्यक्ति संन्यासी या साधु का भेष धारण करता है और लोगों में साधु के रूप में प्रतिष्ठित होता है। जो लोग उससे उम्र में बड़े होते हैं वे भी उन्हें नमस्कार करते हैं, उनका चरणस्पर्श करते हैं। यहाँ तक कि माता-पिता भी उसे पुत्र न मानकर अपने से श्रेष्ठ मानते हैं और उसे नमस्कार करते हैं, उसकी वन्दना करते हैं। वह उच्च आसन पर विराजमान होता है
और सामान्य लोग उसके सामने नीचे बैठते हैं। ये सभी बातें संन्यासी या श्रमण के मन में अहम्-भाव जागृत कर देती हैं। वह समझता है कि वह सच्चे अर्थ में साधु हो गया। उसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली। फलस्वरूप उसके बोलने की शैली उपदेशात्मक तथा आदेशात्मक हो जाती है। वह समझता है कि जो वह बोल रहा है वही धर्म है। वह स्वयं अपने को महाज्ञानी तथा सामान्य लोगों को महामूर्ख मान बैठता है; किन्तु वास्तव में यह उसकी धर्मान्धता होती है, अज्ञानता होती है, क्योंकि वासनाएं जल्द व्यक्ति को छोड़ती नहीं हैं और जब तक वह इन्द्रियों को वश में नहीं कर लेता है, कोई व्यक्ति अपने को साधु कहने का अधिकारी नहीं होता है। एक कहानी इस प्रकार हैं- एक व्यक्ति चोरी करता था, लेकिन किसी कारणवश उसने किसी सम्प्रदाय में दीक्षा ले ली। वह साधुओं के साथ रहने लगा; किन्तु चोरी करने की उसकी प्रवृत्ति समाप्त नहीं हो सकी। वह प्राय: दो-चार दिनों पर रात में अपने साथियों के तुम्बों या तुम्मों (जल पात्रों) को इधर-उधर छुपा देता था। सबेरा होने पर उसके साथी
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