Book Title: Sramana 2003 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 56
________________ ५२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ गण-कुल और शाखा के स्थान पर परवर्तीकाल में जब 'गच्छ' शब्द का प्रचलन हुआ तो चन्द्रकुल भी चन्द्रगच्छ के नाम से जाना जाने लगा। चन्द्रगच्छ के मुनिजनों द्वारा रची गयी विभिन्न रचनायें उपलब्ध होती हैं जो १२वीं शती तथा उसके बाद की विभिन्न शताब्दियों में रची गयी हैं। उपलब्ध अभिलेखीय और ग्रन्थप्रशस्तिगत साक्ष्यों के आधार पर यह सुनिश्चित है कि १२वीं-१४वीं शताब्दी में चन्द्रगच्छ श्वेताम्बर परम्परा का एक प्रभावशाली गच्छ रहा है। इस गच्छ का प्रभावक्षेत्र कहां से कहां तक रहा, यह ठीक-ठीक निश्चित कर पाना कठिन है, किन्तु चन्द्रगच्छ के जो अभिलेख हमें प्राप्त हुए हैं वे पश्चिमी राजस्थान और गुजरात प्रान्त के हैं। अभी तक इस गच्छ का कोई भी लेख हमें महाराष्ट्र से मिला हो, ऐसी सूचना हमारे पास उपलब्ध नहीं है। चन्द्रगच्छ का उल्लेख करने वाला महाराष्ट्र प्रान्त से प्राप्त यह प्रथम अभिलेख है। चूंकि उक्त लेख में इस गच्छ के किसी आचार्य का नाम नहीं है अत: ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र में चन्द्रगच्छ के श्रावक ही रहते थे। इस गच्छ के मुनि एवं आचार्यों का यहां विचरण नगण्य ही रहा होगा, अन्यथा किसी आचार्य द्वारा उक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई होती और वहां उनका नाम भी उत्कीर्ण होता। यह उल्लेखनीय है कि धूलिया के जिस निकटवर्ती ग्राम से उक्त प्रतिमा मिली है वह दक्षिणी गुजरात से २०० कि०मी० से अधिक दूर नहीं है। प्रस्तुत अभिलेख में चन्द्रगच्छ के साथ-साथ कन्धारान्वय का भी उल्लेख है। विभिन्न साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि पूर्वमध्य युग एवं मध्ययुग में चन्द्रगच्छ श्वेताम्बर परम्परा का एक सुविख्यात गच्छ रहा है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में कन्धारान्वय का उल्लेख हमारी जानकारी में यह प्रथम ही है। यह अन्वय कब अस्तित्त्व में आया, इसके आदिम आचार्य कौन थे, यह बता पाना कठिन है। केवल एक ही बात स्पष्ट होती है कि इस 'अन्वय' की उत्पत्ति कन्धार से हुई है। कन्धार नामक स्थान तो नहीं अपितु गंधार नामक स्थान अवश्य है जो गुजरात राज्य में खंभात के निकट स्थित है। यह वही स्थान है जहां से अकबरप्रतिबोधक आचार्य हीरविजयसूरि ने बादशाह के निमंत्रण पर आगरा के लिये प्रस्थान किया था। १२वीं से १६वीं शती तक यह स्थान जैनों का एक प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। यहां के ओसवालों का एक बड़ा वर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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