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धूलिया से प्राप्त शीतलनाथ की विशिष्ट प्रतिमा
___प्रो० सागरमल जैन* महाराष्ट्र प्रान्त के धूलिया नामक नगर के निकट स्थित एक ग्राम से श्याम पाषाण की एक जिनप्रतिमा विगत कुछ वर्ष पूर्व उपल्ब्ध हुई थी जो आज धूलिया के श्वेताम्बर जैन मंदिर में प्रतिष्ठापित है। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार जिस स्थान से उक्त प्रतिमा उपलब्ध हुई है, वहां एक भग्न जिनालय के अवशेष भी मिलते हैं। उक्त प्रतिमा पर लेख भी उत्कीर्ण है, जिसकी वाचना निम्नानुसार है :
सं० १२१६ फाल्गुन वदि १० गुरौ श्री चन्द्रगच्छीय कन्धारान्वयग्रे रासलेनसुत आमदेवग्ने यस प्रतिमा कारिता।
उक्त प्रतिमा लेख को विक्रम सम्वत् ही मानना चाहिए क्योंकि अब तक प्रायः जो भी जैन प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं उन पर विक्रम सम्वत् ऐसा न लिख कर केवल सम्वत् ही लिखा होता है। दूसरे जहां शक सम्वत् उत्कीर्ण करना होता था, वहां स्पष्ट रूप से शक सम्वत् लिखते थे। इस आधार पर उक्त प्रतिमालेख में उल्लिखित सम्वत् की विक्रमसम्वत् मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती। उक्त लेख में चन्द्रगच्छ के कन्धारान्वय का उल्लेख होने से ऐसा लगता है कि यह चन्द्रगच्छ की कोई शाखा रही होगी। चन्द्रगच्छ का प्रादुर्भाव चन्द्रकुल से हुआ है। परम्परागत मान्यतानुसार आर्य वज्रसेन के चार शिष्यों - नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर - से चार कुल अस्तित्व में आये। प्रभावकचरित तथा परवर्ती काल में रची गयी विभिन्न पट्टावलियों से भी इस बात की पुष्टि होती है किन्तु कल्पसूत्र की ‘स्थविरावली' में 'चन्द्र' और 'निवृत्ति' कुल का उल्लेख न होने से यह स्पष्ट है कि किञ्चित परवर्ती काल में ये कुल अस्तित्त्व में आये। आकोटा से प्राप्त धातु प्रतिमाओं में 'चन्द्र' और 'निवृत्ति' कुल का स्पष्ट उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि ई० सन् की छठी शती तक ये कुल अस्तित्त्व में आ चुके थे। आगे चलकर चन्द्रकुल से ही बृहद्गच्छ, पूर्णिमागच्छ, पिप्पलगच्छ, खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, तपागच्छ आदि अस्तित्त्व में आये। इनमें से खरतर, अंचल (अचल) और तपा - ये तीन गच्छ आज भी विद्यमान हैं। *सचिव, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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