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१६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ जबकि मृत्योपरान्त के संस्कारों द्वारा परलोक को विजित करता है।४ शवदाह, अशौच की स्थिति, पिण्डदान, श्राद्ध, मन्त्रोच्चारण, ब्राह्मण भोजन आदि भी विधिवत सम्पन्न होते हैं।
जैन-पुराणों में संस्कारों का विशेष महात्म्य वर्णित है। जैन गर्भान्वय क्रिया के अन्तर्गत सम्यक दर्शन की शुद्धता को धारण करने वाले जीवों के लिए तिरपन संस्कार विहित हैं। भव्य पुरुषों को सदा उनका पालन करना चाहिए और द्विजों की विधि के अनुसार इन क्रियाओं को करना चाहिए। यथा
इति निर्वाणपर्यन्ताः क्रिया गर्भादिकाः सदा। भव्यात्मभिरनुष्ठेयास्त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात्।। यथोक्तविधिनैताः स्युरनुष्ठेया द्विजन्मभिः।
(आदिपुराण, ३८/३१०-३११) आधान संस्कार पत्नी के रजस्वला होने पर जब चौथे दिन स्नान करके शुद्ध हो जाती है तब अर्हन्तदेव की पूजा कर मन्त्रपूर्वक विषयानुराग से विरत होकर उत्तम सन्तान की कामना से की जाती है।३५ इसमें पीठिका, जाति, निस्तारक, ऋषि, सुरेन्द्र, परमेष्ठी से सम्बन्धित मन्त्रों का यथाविधि प्रयोग होता है।३६ यह हिन्दू धर्म के गर्भाधान संस्कार के समतुल्य है। प्रीति संस्कार का उद्देश्य गर्भ संरक्षण तथा गर्भवती को प्रसन्न करना है। मन्त्रोच्चार एवं जिनेन्द्रदेव के पूजन के साथ यह गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाता है। यह वैदिक सीमन्तोन्नयन संस्कार के समान है। सुप्रीति संस्कार गर्भ की पुष्टि और उत्तम सन्तान की कामना से गर्भाधान के पाँचवें माह में देवाराधना के साथ किया जाता है।३८ वैदिक पुंसवन संस्कार से इसकी तुलना की जा सकती है। धृति संस्कार गर्भस्थ शिशु के रक्षार्थ विधि-विधानपूर्वक सातवें माह में सम्पन्न किया जाता है। मोद संस्कार में गर्भिणी के शरीर पर गत्रिका बान्धना, अभिमन्त्रित बीजाक्षर लिखना और मंगलसूचक आभूषण पहनाने की परम्परा है। जो नवें माह के निकट होने पर किया जाता है। प्रियोद्भव संस्कार शिशु के जन्म होने पर विधिपूर्वक माता को स्नान और सन्तान को आशीर्वाद के बाद आकाश दर्शन करवा कर सम्पन्न किया जाता है। यह हिन्दू जातकर्म संस्कार के अनुरूप है।
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