Book Title: Sramana 2003 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 14
________________ १० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ और मास्की का सम्बन्ध सम्राट् सम्प्रति के स्वयं एवं सगे-सम्बन्धियों से सम्बन्धित स्थलों से है। सिद्धगिरि, ब्रह्मगिरि, चित्तल दुर्ग. और सोपारा के शिलालेखों का सम्बन्ध जैनमुनियों के समाधिस्थलों से है। इन शिलालेखों में सम्राट् सम्प्रति ने जैनधर्म के सिद्धान्तों को गुम्फित किया है, जिसकी पुष्टि अन्तःपरीक्षण से होती है। इन शिलालेखों को सम्प्रति ने उन-उन सार्वजनिक स्थानों पर खुदवाया था, जहाँ अधिकांश लोग यात्रा के लिए निरन्तर जाते थे। शिलालेखों में सम्राट् सम्प्रति ने अपने को देवानां प्रिय प्रियदर्शी के रूप में अङ्कित किया है। देवानां प्रिय विशेषण का उपयोग प्राय: साधु, महाराज, भक्तजन या किसी सेठ के लिए होता था। कभी-कभी पति-पत्नी भी एक-दूसरे के सम्बोधन के लिए इसका व्यवहार करते थे। डॉ० शास्त्री के अनुसार प्रियदर्शी सम्राट् सम्प्रति का उपनाम था, अशोक का नहीं। - भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ १३८-१४०. (मास्की, गुजरी, निट्टर एवं उदेगोलम से प्राप्त अभिलेखों में देवानांप्रिय के साथ अशोक नाम मिलता है इस कारण अब देवानांप्रिय के अभिलेखों को अशोक का माना जाता है। – सम्पादक) २८. मोतीचन्द, काशी का इतिहास, पृष्ठ ६१.. २९. नेमिचन्द्र शास्त्री, पूर्वोक्त, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ १५०. ३०. सत्येन्द्र मोहन जैन, दिगम्बर जैन श्री पार्श्वनाथ जन्मभूमि मन्दिर भेलूपुर, वाराणसी का ऐतिहासिक परिचय, पृ. ८. ३१. बलभद्र जैन, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग, पृ० १४३-१४४. ३२. ललितचन्द जैन, वाराणसी जैनतीर्थ दर्शन, पृ० १२-१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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