Book Title: Sramana 2003 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ जैन पुराणों में वर्णित जैन संस्कारों का जैनेतर संस्कारों से तुलनात्मक अध्ययन : १३ प्राप्त करते हैं। स्वर्ग से च्युत होने पर क्रमश: चक्रवर्ती तथा अर्हन्त पद के बाद परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार संस्कारों को सम्पन्न करने पर क्रमश: अभ्युदय की उपलब्धि होती है। जैन पुराणों में वर्णित संस्कारों अथवा क्रियाओं को मुख्यत: तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। यथा- गर्भान्वय, दीक्षान्वय एवं क्रियान्वय संस्कार। गर्भान्वय में तिरपन, दीक्षान्वय में अड़तालीस तथा क्रियान्वय के अन्तर्गत सात संस्कारों का उल्लेख है।१ अन्त्येष्टि संस्कार का इन श्रेणियों से पृथक् उल्लेख हुआ है। वैदिक संस्कारों की संख्या धर्मशास्त्रकारों द्वारा अलग-अलग बतायी गयी है। गौतम २ शंख और मिताक्षरा ने संस्कारों की संख्या चालीस, वैखानस ने अठारह, पारस्कर, बौधायन, वराह गृहसूत्रों में तेरह तथा आश्वलायन गृहसूत्र में ग्यारह दी गयी है। अंगिरा ने पच्चीस तथा व्यास ने सोलह संस्कारों का उल्लेख किया है; किन्तु प्राय: सभी धर्मशास्त्रकार संस्कारों की संख्या सोलह मानते हैं। आधुनिक समीक्षकों का विचार है कि संस्कारों की संख्या लोकप्रचलित मान्यता पर निर्भर थी।१३ ___इस्लाम मत में भी एकाधिक संस्कारों का उल्लेख मिलता है। शुद्धि और स्वास्थ्य के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ‘सुन्नत' अथवा 'खतना' एक महत्त्वपूर्ण संस्कार माना गया है जो बाल्यावस्था में सम्पन्न किया जाता है। इस्लाम धर्म में भी पैदाइस, तालीम, गुश्ल, वजू, नमाज़, रोज़ा, खैरात, निकाह, हज़ और दफ़न आदि का विधान विहित है लेकिन इन्हें संस्कार नहीं माना जाता है। निकाह को भी संस्कार नहीं माना गया है, निकाह पति-पत्नी के बीच जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध नहीं है। यह एक संविदा (करार) है जो तलाक द्वारा बकाया मेहर देकर तोड़ा जा सकता है। ईसाई धर्मावलम्बियों के कल्याण और उद्धार के निमित्त धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का संग्रह किया गया और मानव के विभिन्न एवं विपरीत वातावरणों के अनुकूल अनेक प्रार्थनाओं और पूजा पद्धतियों का निर्माण हआ। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त प्रत्येक ईसाई के जीवन में धर्म की प्रधानता अक्षुण्ण रखने के निमित्त सात संस्कारों का विधान है जिसमें धर्म के समस्त मौलिक उपदेशों का समावेश हो जाता है। १. मान्यता प्रदान संस्कार केवल पादरियों के लिए होता है। इस संस्कार द्वारा धर्म में उनकी दीक्षा होती है और उपासकों के अन्य संस्कारों को सम्पन्न कराने का अधिकार प्रदान किया जाता है। २. जन्म संस्कार के द्वारा नवजात शिशु चर्च की सदस्यता प्राप्त करता है। ३. प्रमाणीकरण संस्कार विशप सम्पादित करता है। इस संस्कार द्वारा बारह वर्ष की आयु के बच्चों के चर्च की सदस्यता प्रमाणित की जाती है और उन्हें धर्म-सम्बन्धी आवश्यक बातों का ज्ञान कराया जाता है। ४. प्रायश्चित संस्कार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा जन्म संस्कार के बाद के समस्त पापों का निवारण होना माना जाता है। इसमें सर्वप्रथम पापात्मा को अपने अन्तःकरण से किये हुए पापों के प्रति दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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