Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 202
________________ वालकहा सिरिसिरि मा 216 // RANGARH तओ-जो धुरि सिरि अरिहंतमूलदढपीढपइडिओ। सिद्धमूरिउवजाय साहु चउसाहगरिट्टिओ॥ दसणनाणचरित्ततवहिं पडिसाहहिं सुंदरु। तत्तक्खरसरवग्गलाद्ध, गुरुपयदलडंबरु॥ दिसिवालजक्खजक्खिणि-पमुहसुरकुसुमहिं अलंकिओ। ___स सिद्धचक्कगुरुकप्पतरु अम्हह मणवंछिअ दिअओ // 1203 // .. लयोः मङ्गलकरणं कृतम् // 1202 // ततश्चैत्यवन्दनं करोति, तत्रादौ नमस्कारमाह-यः श्रीसिद्धचक्ररूपो गुरुः महान् कल्पतरु:-कल्पवृक्षो धुरि-आदौ अहंन्नेव यन्मूलदृढपी (तत्र) प्रतिष्ठितः, कीदृशो ?-यः सिद्धसुर्यपाध्यायसाधव एव चतस्रः शाखास्ताभिगरिष्ठः-अनिमहान् , पुनदर्शनज्ञानचारित्रतपोरूपाभिः प्रतिशाखामिः सुन्दरः, पुनः तवाक्षराणि ओङ्कारादीनि स्वरा अवर्णादयः वर्गाअवर्गकवर्गादयः लब्धिपदानि अष्टचत्वारिंशद् गुरुपदानि अईत्पादुकादीनि तान्येव दलानां-पत्राणां आडम्बरो यस्य स तथा पुनः दिकपालयक्षयक्षिणीप्रमुखः सुरकुसुमैः अलङ्कृतः-शोभितः स सिद्धचक्रगुरुकल्पतरुः अस्मभ्यं मनोवाञ्छित फलं ददातु // 1203 // १२०३–अत्र सिद्धचक्रस्य कल्पवृक्षतादात्म्यारोपात् सावयवं रूपकम् / // 216 //

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