Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ वालकहा सिरिसिरि // 224 // जे यारसंगसज्झायपारगा धारगा तयत्थाणं / तदुभयवित्थाररया तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1245 // पाहाणसमावि हु कुणंति जे सुत्सधारया सीसे / सयल जणपूणिजे तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1246 // मोहाहिदहनढप्पनागजीवाण चेयणं दिति / ज केवि नरिंदा इव तेऽहं शाएमि उज्झाए // 1247 // ये द्वादशाङ्गस्वाध्यायस्य पारगाः-पारगामिनः पुनः तदर्थानां-द्वादशाङ्गया अर्थानां धारकाः, पुनः तदुभयस्य-सूत्रार्थरूपस्य विस्तारे रता-रक्तास्तानुपाध्यायानहं ध्यायामि / / 1245 // ये गुरवो हु-इति निश्चितं पाषाणसमानान्-प्रस्तरतुल्यानपि शिष्यान् सूत्रधारया-सूत्ररूपतीक्ष्णशस्त्रधारया सकलजनानां-सर्वलोकानां पूजनीयान् कुर्वन्ति, तानुपाध्यायान् अहं ध्यायामि / / 1246 // मोह एव अहिः-सर्पस्तेन दष्टा, अत एव नष्टमात्मज्ञानं येषां ते नष्टात्मज्ञानाः, एवम्भूता ये जीवास्तेभ्यो ये केऽपि गुरवः चेतना-चैतन्यं ददति, के इव ? नरेन्द्रा इव-विषवैद्या इव, तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1247 // अज्ञानमेव व्याधिः-रोगस्तेन विधुराः १२४५-अत्र 'पारगा धारगा' इत्याद्यंशे वृत्त्यनुप्रासः / १२४६-अत्र सूत्रे तीक्ष्णशस्त्रारोपाद्रपकमलङ्कारः। 1247 -अत्रोपाध्याये चैतन्यदायकत्वेन विषवैद्यसादृश्यवर्णनादुपमा / // 224 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250