Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ वालकहा सिरिसिरि // 232 // मस्त पसाएण धुवं हवंति नाणाविहाउलद्धीओ। आमोसहि पमुहाओ तं तवपयमेस वदामि // 1294 // कल्पतरुस्सव जस्से रिसाउ सुरनरवराण रिद्धिओ। कुसुमाई फलं च सिवं तं तवपयमेस बंदामि // 1295 // भच्चतमसज्झाइं लीलाइवि सव्वलोय कज्जाई / सिझंति झत्ति जेणं तं तवपयमेस बंदामि // 1296 // / / 1293 / / यस्य तपसः प्रसादेन ध्रुवं-निश्चितं आमषिधि प्रमुखा नानाविधा-अनेकमकारा लब्धयो भवन्तिउत्पद्यन्ते तत्तपः पदमेषोऽहं वन्दे // 1294 // कल्पतरो:- कल्पवृक्षस्य इव यस्य तपस ईदृशः सुरवराणां नरवराणां च ऋदयः-सम्पदः कुसुमानि-पुष्पाणि सन्ति, च पुनः शि-मोक्षं फलं वर्तते, तत्तपः पदमेषोऽहं वन्दे // 1295|| अत्यन्तं असाध्यानि-साधयितुमशक्यानि सर्वाणि लोकानां कार्याणि येन तपसा लीलयाऽपि-हेलया एव झटिति-शीघ्रं सिध्यन्ति तत्तपः पदमेषोऽहं वन्दे // 1296 // लोकेदविदुर्विकादिमङ्गल पदार्थानां साफ-समृहे यत्तपः प्रथमं मङ्गलं वर्ण्यते, तस्य भावमङ्गल 1294 - स्पष्टम् / 1295 - अत्र सम्पत्तिकुसुममोक्षफलदायकत्वेन तपसि कल्पवृक्ष - सादृश्यवर्णनादुपमालङ्कारः / 1296 - स्पष्ठम् / &aa // 232 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250