Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 238
________________ वालकद्दा सिरिसिरि नाहियवायसमज्जिअपावभरोऽवि हु पएसिनरनाहो / // 233 // जं पावह सुररिद्धिं आयरियप्पयप्पसाओ सो // 1307 // लहुयंपि गुरुवइ आराहंतेहिं वयरमज्झायं / पत्तो सुसाहवाओ सीसेहिं सीहगिरीगुरुणो // 1308 // साहपविराहणया आराहणया य दुक्खसुक्खाई। रुप्पिणिरोहिणीजीवहिं किं नहु पत्ताइं गुरुयाइं // 1309 // ध्यायन्तो लोके श्रीपुण्डरीकपाण्डवपद्ममुनीन्द्रादयः के के शिवसम्पदं-मुक्तिसमृद्धिं न सम्माप्ताः ?, बहवः सम्पाप्ता इत्यर्थः, पद्मो-रामचन्द्रः॥ 1306 / / नास्तिकवादेन समर्जितः-सञ्चितः पापोत्कर्षों येन स तथाभूतोऽपि प्रदेशिनरनाथ:-प्रदेशिनामा नृपो यत् सुरऋद्धि-देवदि प्राप्नोति, सआचार्यपदस्य प्रसादः॥१३०७॥ गुरुणा-सिंहगिरिणा उपदिष्ट-निवेदितं लघुवयसमपि वज्ञ (जं)-वज्ञ (ज) नामकं उपाध्याय-वाचनाचार्य आराधयद्भि सुसाधुवादः सम्यविनीताः शिष्या इत्येवंरूपः प्राप्तः // 1308 // साधुपदस्य विराधनया आराद धनया च क्रमेण रुक्मिणीरोहिणीजीवाभ्यां गुरुकाणि-महान्ति दुःखानि सुखानि च किं न हि प्राप्तानि ?, 1306 - 1307 - 1308 स्पष्टानि / 1309 - रुक्मिणीरोहिण्यादिजीवानां सुखदुःखादौ साधु विराधनाsराधनादीनां करणतया कथनात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः। 6 // 233 //

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