Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 220
________________ वालकक्ष सिरिसिरि // 225 // अन्नाणंघ लोयाण लोयणे जे पसत्थसत्थमुहा / उग्घाडयति सम्म तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1251 // यावन्नवण्णचंदणरसेण ज लोयपावतावाई। उवसामयंति सहसा तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1252 // जे रायकुमरतुल्ला गणतत्तिपरा अ मूरिपयजुग्गा / वायंति सीसवग्गं तऽहं ज्ञाएमि उज्झाए // 1253 // ये गुरवोऽज्ञानेन अन्धानि(नां) लोकानां लोचनानि-नेत्राणि प्रशस्तशास्त्रमुखात् लोचनपक्षे प्रशस्तशस्त्रमुखात् सम्यक् उद्घाट्यन्ति, तानुपाध्यायान् अहं ध्यायामि // 1252 / द्वापञ्चाशद्वर्णा एव चन्दनरस: तेन ये गुरवः सहसा-अकस्मात् लोकानां पापतापान उपशामयन्ति. तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1252 // ये राजकुमारतुल्याः, चः पुनः गणतप्तिपरा-गगसमाधानकरणतत्पराः तथा सूरिपदस्य-आचार्यपदस्य योग्याः शिष्यवर्ग वाचयन्ति-शिष्यवर्गाय वाचनां ददति. तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1253 // १२५१-अत्र :पसत्थ सत्थमुहा' इत्यत्र श्लेषमहिम्ना शास्त्रशास्त्रोभयवाचित्वाच्छब्दश्लेषालङ्कारः सत्थशम्दस्य पृथगर्थवरव्यञ्जनसंघस्य तेनैव क्रमेणावृत्त्या यमकमिति तयोरलङ्कारयोरेकवाचकनिष्ठत्वेन एक वाचकानुप्रवेशसङ्करालङ्कारः / / १२५२-वृत्त्यनुप्रासः / १२५३-उपाध्यायेषु राजकुमारसादृश्यादुपमालङ्कारः। MISCARSEXSE // 225 //

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