Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 221
________________ जे दंसणनाणचरित्तरूवरयणत्तएण इकण / साहंति मुक्वमग्गं ते सव्वे साहणो वंदे // 1254 // गयदुविहदुट्ठझाणा जे झाइअधम्मसुक्कझाणा य / सिक्वति दुविह सिक्खं ते सव्वे साहणो वंदे // 1255 // गुत्तित्तएण गुत्ता तिसल्लरहिया तिगारवविमुक्का। ज पालयंति तिपई त सव्व साहुणो बंद // 1256 // ये दर्शनज्ञानचारित्ररूपरत्नत्रयेण मोक्षमागं साधयन्ति, कीदृशेन दर्शन त्रयेण ?-'एकेन' एकीभावं गतेन-सम्मिलितेनेत्यर्थः, त्रयाणामेकत्वं विना मोक्षमार्गों न सिद्धयतीतिभावः, तान् सर्वान् साधून् अहं वन्दे है // 1254 // गते द्विविधे-द्विप्रकारे दुष्टध्याने-आत्तरोद्राख्ये येभ्यस्ते गतद्विविधदुष्टध्यानाः, च पुनः ध्याते धर्मशुक्लध्याने यैस्ते तथाभूताः सन्तो ये द्विविधशिक्षा-ग्रहणासेवनारूपां शिक्षन्ते, तान् सर्वान साधून् वन्दे | // 1255 // गुप्तित्रयेण-मनोवाकायगुप्तिलक्षणेन गुप्तागुप्तिमन्तः पुनस्त्रिभिः शल्यः-मायाशल्यादिभिः रहिता वर्जितास्तथा त्रिभिगौरवैः-ऋद्धिगौरवादिभिर्विमुक्ताः सन्तो ये त्रिपदी-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपां पालयन्ति, तान् सर्वान् साधूनहं वन्दे // 1256 // १२५४-दर्शनशानचरित्रेषु रत्नत्वारोपाइपकमलङ्कारः। १२५५-१२५६-स्पष्टे /

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