Book Title: Shrutavatar Author(s): Indranandi Acharya, Vijaykumar Shastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 6
________________ (उत्पत्ति विनाशौ) उत्पत्ति और विनाश उत्पन्न होना और विनष्ट होना (प्रवक्ष्येते) यहाँ कहे जायेंगे/ कहे जाते हैं। अर्थ- यद्यपि भावश्रुत एवं द्रव्यश्रुत इनमें भाव की अपेक्षा श्रुत अनादि अनिधन है (न कभी उत्पन्न हुआ और न कभी विनष्ट होगा) पर द्रव्यश्रुत-शास्त्र परम्परा कालाश्रित है- वह योग्य काल में ज्ञानी, निर्ग्रन्थ, वीतरागी सन्तों द्वारा ज्ञान की प्रकर्षता में तथा बाह्य निर्विघ्नताओं में शास्त्र रचना के रूप में उत्पन्न भी होता है और ज्ञान की अप्रकर्षता तथा बाह्य विघ्न बाधाओं के रहते हुए विनाश को भी प्राप्त होता रहता है। उसी के समान आत्मदृष्टि से न जन्म लेने वाले, न मरने वाले किन्तु शरीर दृष्टि से जन्म और मरण करने वाले मेरे द्वाराउस श्रुतद्रव्यश्रुत रूप शास्त्र-परम्परा की उन्नति और दिमाश यहाँ कहे जाने मात कहे पर जाते हैं। भरतेऽस्मिन्नवसर्पिण्युत्सर्पिण्यायो प्रवर्त्तते । कालौ सदाऽपि जीवोत्सेधायुहासवृद्धिकरौ ।।३।। अन्ययार्थ- (अस्मिन्) इस (भरते) भरत क्षेत्र में (जीवोत्सेधायुहासवृद्धिकरौ) जीवों की ऊँचाई, आयु आदि में हास तथा वृद्धि करने वाले (अवसर्पिण्युत्सर्पिण्याहयौ) अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी नाम के (कालौ) दो काल (सदा) नित्य ही (प्रवर्तते) प्रवर्तित होते हैं। अर्थ- जम्बू द्वीप के छह क्षेत्रों में दक्षिण ध्रुव में भरत और उत्तर ध्रुव में ऐरावत क्षेत्र हैं। इन दोनों क्षेत्रों में कालचक्र का प्रवर्तन होता है। प्रथमतः काल चक्र दो रूपों- अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के रूप में प्रवर्तित होते हैं। इनमें अवसर्पिणी का तात्पर्य ह्रास अर्थात् नीचे की ओर जाने वाला तथा उत्सर्पिणी का अर्थ उत्कर्ष-ऊपर की ओर जाने वाला है। अवसर्पिणी में जीवों की ऊँचाई, आयु, बल, बुद्धि, मति, सुख सम्पदा विचार आदि हास को प्राप्त होते हैं, इसके विपरीत उत्सर्पिणी में इन सब वस्तुओं में वृद्धि होती है। जैसे सर्प फन की ओर से पूँछ तक मोटाई में घटता जाता है। वैसे ही अवसर्पिणी में क्रमश: सभी उत्तम वस्तुओं में हास या घटती होती जाती हैं जबकि पूँछ की ओर से फन तक सर्प जैसे मोटा होता जाता है वैसे ही उत्सर्पिणी में सभी उत्तम वस्तुएँ वृद्धिगत होती जाती हैं। श्रुतावतारPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 66