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जिनपालितं ततस्तं भूतवालः पुष्पदन्तगुरुपायम् । षट्खण्डान्यप्यध्यगमयत्तत्पुस्तकसमेतम् ॥१४५ ।।
अन्वयार्थ - (ततः) तदनन्तर (भूतबलि) भूतबलि महाराज ने (तं जिनपालित) उन जिनपालित को (पुष्पदन्तगुरुपार्श्वम्) पुष्पदन्त गुरु के निकट (एतत् तत् पुस्तकम्) यह वह षट्खण्डागम नामक पुस्तक (अध्यगमयत) भेजी।
अर्थ- तदनन्तर भूतबलि महाराज ने उस जिनपालित से पुष्पदन्त गुरु के निकट षट्खण्डागम नामक यह पुस्तक भिजवाई।
अथ पुष्पदन्तगुरुरपि जिनपालितहस्तसंस्थितमुदीक्ष्य । षट्खण्डागमपुस्तकमहो मया चिन्तितं कार्यम् ॥१४६ ।। सम्पन्न मिति समस्तांगोत्पन्नमहाश्रुतानुरागभरः । चातुर्वर्ण्यसुसंघान्वितो विहितवान् क्रियाकर्म ॥१४७॥
अन्वयार्थ- (अथ) इसके अनन्तर (पुष्पदन्तगुरुरपि) पुष्पदन्त गुरु ने भी । (जिनपालितहस्तसंस्थितम्) जिनपालित के हाथ में स्थित (षट्खण्डागम पुस्तक) पट्खण्डागम नामक ग्रन्थ को (उदीक्ष्य) अच्छी तरह देखकर (अहो मया चिन्तितं कार्य सम्पन्न) 'अरे मेरे द्वारा सोचा गया कार्य होगया है' (इति) इस प्रकार (समस्तांगोत्पन्नमहामतानुरागभरः) समस्त अंगों में उत्पन्न जो महान् श्रुतानुराग उससे भरा हुआ (चातुर्वर्ण्यसंघान्वितः) चातुर्वर्ण्य संघ से युक्त हुआ (क्रियाकर्म) कृतिकर्म (पूजा कार्य) (विहितवान्) किया।
अर्थ- तदनन्तर पुष्पदन्त गुरु ने भी जिनपालित के हाथ में सुस्थित षट्खण्डागम ग्रन्थ को भले प्रकार से देखकर आश्चर्य में पड़ते हुए। “अरे! मेरे द्वारा विचारा गया कार्य सम्पन्न हो गया' कहकर समस्त अंगों में उल्लास से भरकर चातुर्वण्य - मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविका रूप संघ से युक्त होकर पूजा की।
गन्धाक्षतमाल्याम्बरवितानघण्टाध्वजादिभिः प्राग्वत्। श्रुतपञ्चम्यामकरोत्सिद्धान्तसुपुस्तकमहेज्याम् ॥१४८॥
अन्वयार्थ-- अनन्तर पुष्पदन्ताचार्य ने (प्राग्वत्) पहले की भाँति अर्थात् जैसी सिद्धान्त पूजा भूतबलि आचार्य ने की थी उसी तरह (गन्धाक्षतमाल्याम्बरवितानघण्टाध्वजादिभिः) गन्ध, अक्षत, माला, वस्त्र,
श्रुताक्तार