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अधिकारों द्वारा (सत्कर्मनामधेय) सत्कर्म नामक का (षष्ठं खण्ड) छठवें खण्ड को (संक्षिप्य) संक्षेप करके (इति) इस प्रकार (पण्णां खण्डानां) छहों खण्डों की (द्विसप्तप्या) ग्रन्थ सहनेः बहत्तर हजार गाथा प्रमाण (प्राकृत संस्कृत भाषा मिश्री) प्राकृत संस्कृत मिश्र भाषा रूप (धवलाख्यां टीका विलिख्य) धवला नामक टीका लिखकर (कषायप्राभृतके) कषायप्राभृत पर (चतसृणां विभक्तीनां) चार विभक्तियों की (विंशतिसहस्रसद्ग्रन्थरचनया) बीस हजार गाथा प्रमाण रचना से (युक्ता) युक्त (जयधवलाख्या) जयधवला नामक टीका (विरच्य) टीका रचकर (दिवं यातः) स्वर्ग चले गये (ततः पुनः) उसके बाद फिर (तच्छिष्यो) उनके शिष्य (जयसेन नामा गुरु) जयसेन जिनसेन नामक गुरु ने (तच्छेषं) उसके शेष भाग को (चत्वारिंशता सहस्रैः) चालीस हजार गाथा प्रमाण से (समापितवान्) समास किया (एवं जयधवला) इस प्रकार जयधवला नामक टीका (षष्टिसहस्र ग्रन्थोऽभक्त्) साठ हजार गाथा प्रमाण हुई। ___ अर्थ- तदनन्तर वह भगवान वीरसेनाचार्य गुरु के आदेश से चित्रकूटपुर से आकर वाटग्नाम में यहां के आनतेन्द्र द्वारा निर्मित जिन मन्दिर में ठहर कर उसमें बप्पदेव गुरु रचित 'ज्याख्याप्रज्ञप्नि' नामक टीका प्राम कर पूर्व षट्खण्ड से अर्थात षदखण्डागम के छठवें (महाबन्ध) खण्ड को छोड़कर शेष पाँच खण्डों की उपरितम निबन्धनादि अठारह अधिकारों द्वारा 'सत्कर्म' नामक तथा छठे खण्ड को संक्षिप्त किया इस प्रकार छहों खण्डों की बहत्तर हजार गाथाओं प्रमाण प्राकृत संस्कृत मिश्रित 'धवला' नामक टीका को लिखकर कषायप्राभृत पर चार विभक्तियों की बीस हजार गाथाओं प्रमाण जयधवला नामक टीका लिखकर स्वर्गवासी होगये। तत्पश्चात उनके शिष्य जयसेन अपर नाम जिनसेन ने उसके (कषायप्राभृत जिस पर वीर सेनाचार्य ने अयधवला टीका लिखी) शेष भाग टीका को उससे आगे चालीस हजार गाथाओं प्रमाण में लिखकर समाप्त किया। इस प्रकार कषाय प्राभूत की जयधवला नामक टीका साठ हजार गाथा प्रमाण हुई है।
एवं श्रुतायतारो निरूपतिः श्रीन्द्रनन्दियतिपतिना। श्रुतपञ्चम्यामृषिभियाख्येयो भय्यलोकेभ्यः ।१५५ ।।
अन्ययार्थ-- (एवं) इस प्रकार (श्रीन्द्रनन्दियतिपतिना) श्री इन्द्रनन्दि नामक यतिपति के द्वारा (ऋषिभिः) ऋषियों के द्वारा (भव्यलोकेभ्यः) भव्यजीवों के
भुताक्तार