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सूत्राणि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाह्वयं ततः षष्टकं खण्डम् ॥१३६।। त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थं व्यरचपदसौ महात्मा। तेषां पञ्चानामपि खण्डानां शृणुत नामानि ॥१४०॥
अन्वयार्थ (ततः) अनन्तर (तेन) उन पुष्पदन्त शिष्य जिनपालित द्वारा परिपठिता) ही पण सारूणा को सुनकर (पुष्पदन्त गुरोः) पुष्पदन्त गुरु के (षटूखण्डागम रचनाभिप्राय) षटूखण्डागम की रचना के अभिप्राय को (विज्ञाय) जानकर (मानवान्) मानवों को (अल्पायुष्मान्) अल्प आयु से युक्त तथा (अल्पमतीन्) अल्पबुद्धि से युक्त (प्रतीत्य) जानकर (द्रव्यप्ररूपणाधिकार) द्रव्यप्ररूपणाधिकार को (अन्वक्) पीछे (खण्डपञ्चकस्य) पाँच खण्डों के बाद (पूर्वसूत्रसहितानि) पुष्पदन्त गुरु द्वारा रचित सूत्रों सहित (ग्रन्थस्य षट्सहस्र सूत्राणि) ग्रन्थ के छह हजार सूत्रों को (प्रचिरच्य) रचकर (त्रिंशत्सहस्रसूत्र ग्रन्थं) तीस हजार सूत्रों की ग्रन्थनपूर्वक (षष्ठ के ) छठे (महानन्ध्राह्वयं) महाबन्ध नामक (असौ महात्मा) महा महिमाधारी इन महात्मा भूतबलि ने (व्यरचयत्) रचा अर्थात् बनाया।
नोट- (१३९वें) श्लोक का प्रथम चरण-ग्रन्थस्य षट्सहस सूत्राण्मथ होना उपयुक्त लगता है।
अर्थ-इसके अनन्तर महात्मा भूतवलि ने उन पुष्पदन्त आचार्य के शिष्य जिनपालित द्वारा पढ़ी गई सत्प्ररूपणा को सुनकर जिनवाणी के पिपाषु भव्य जीवों को अल्पआयु तथा अल्पबुद्धि का जानकर तथा पुष्पदन्त गुरु के षट्खण्डागम की रचना के अभिप्राय को जानकर द्रव्यप्ररूपणाधिकार के बाद पुष्पदन्त गुरु द्वारा लिांखत जिनपालित द्वारा सुनाये गये सौ सूत्रों सहित ६ हजार सूत्र प्रमाण ग्रन्थ की रचना कर तीस हजार सूत्रों के ग्रथनपूर्वक छठे महाबन्ध नामक ग्रन्थ को बनाया उन पाँचों खण्ड़ों के नाम कहते हैं सो सुनिये।
आद्यं जीवस्थानं क्षुल्लकबन्धाहयं द्वितीयमतः । बन्दस्वामित्वं भाववेदनावर्गणाखण्डे ॥१४१ ।।
अन्ययार्थ- (आय) पहला (जीवस्थान) जीवस्थान (अतः द्वितीय) इसके अनन्तर दूसरा (क्षुल्लक बन्धालय) क्षुल्लक बन्ध खुद्दाबन्ध नामका,
श्रुतावतार