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अन्वयार्थ- (तेन गुरुणा) उन गुरु धरसेनाचार्य द्वारा (द्वितीय दिवसे) किसी अन्य दिन (स्वासन्नमृति ज्ञात्वा) अपनी निकट मृत्यु को जानकर (अस्मिन्) इस स्थान पर (एतयोः) इन दोनों शिष्यों को (संक्लेश मा भूत) संक्लेश नहीं हो मेरी मृत्यु का विषाद नहीं हो (इति सञ्चित्य) ऐसा सोचकर (अमुष्य) इस स्थान से (प्रियहित वचनैः) प्रिय और हितकारी वचनों के द्वारा (तो उभौ एव) वे दोनों पुष्पदन्त एवं भूतर्बाल (कुरीश्वरं) कुरीश्वर नामक स्थान नगर को भेज दिये गये (गत्वा) चलकर (नवभिः दिवस) नौ दिनों में (तत् पत्तन अवाप्य) उस नगर को प्राप्त कर (तत्र) वहाँ उस कुरीश्वर नामक नगर में, (आषाढ़े मासि) आषाढ़ महीने में (असित पक्ष पञ्चम्यां) कृष्ण पक्ष की पञ्चमी को (योग प्रगृह्य) योग ग्रहण करके (वर्षाकालं कृत्वा) वर्षा काल के चातुर्मास बिताकर (दक्षिणाभि मुखं) दक्षिण की ओर (विहरन्तौ) विहार करते हुए (अथ करहारे जग्मतु) अनन्तर, करहार नगर को गये (तयोः) उन दोनों मुनियों में (यः पुष्पदन्तनाम मुनिः) पुष्पदन्त नामक मुनि थे (सः) वह (जिनपालिताभिधानं) जिनपालित नामक (स्वं भागिनेयम्) अपने भानजे भगिनीपुत्र को (दृष्ट्वा) देखकर (तस्मै) उसके लिये (दीक्षा) दीक्षा (दत्वा) देकर (तेन समं) उसके साथ (वनवासं देशं एत्य) वनवास देश में पहुंच कर (तस्थौ) ठहर गये। (भूतवलिरपि) भूतबलि मुनिराज भी (द्रविड देशे) द्रविड देश में (मथुरायां) मथुरा नगरी में आधुनिक नाम मदुरै (अस्थात्) ठहर गये। ___अर्थ-इसके अनन्तर उन आचार्य धरसेन ने अपनी मृत्यु को निकट जानका. यहाँ रहने से इन्हें मेरी मृत्यु का विषाद न हो- ऐसा सोचकर एक दिन प्रिय और हितकारी वचनों से उन्हें समझाकर उन दोनों (पुष्पदन्त एवं भूतबलि) को कुरीश्वर नामक स्थान की ओर भेजा और वे नौ दिनों तक अनवरत चलकर उस नगर में पहुंचे। वहाँ आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की पञ्चमी को योग धारण कर वर्षा काल वहीं बिताकर दक्षिण की ओर विहार करते हुए करहार देश गये। उनमें जो पुष्पदन्त मुनिराज थे उन्होंने जिनपालित नामक अपने भानजे को देखकर उसे दीक्षित किया और उसके साथ वनवास देश जाकर ठहर गये। भूतबलि मुनि भी द्रविड़ देशस्थ पथुरा नगरी जिसे आज कल 'मदुरै' कहा जाता है वहाँ ठहर गये।
नोट- १२-वें पद में पुष्पदन्त मुनिराज के साथी मुनिराज का नाम भूतों ने भूतपति दिया था पर यहां १३३वें श्लोक में भूतबलि शास्त्र-प्रचलित नाम ही आ गया है। इसका अर्थ भी भूत-पूजित है।
श्रुतावतार
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