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तदिन एवैकस्य द्विजपंक्ति विषमितामपास्य सुरैः। कृत्या कुन्दोपमितां नाम कृतं पुष्पदन्त इति ॥१२७॥
अन्वयार्थ- (सुरैः) देवों द्वारा (एकस्य) एक की (तदिन एव) उसी दिन ही (विषमिता) विषमिता को प्राप्त (द्विज पंक्ति) दाँतों की पंक्ति को (अपास्य) दूर कर (कुन्दोपमितां कृत्वा) कुन्द के समान सरल और धवल करके (पुष्पदन्त इति) पुष्पदन्त यह नाम (कृतम्) नाम किया।
अर्थ-देवों द्वारा उसी दिन ही एक मुनिराज की विषम दन्तावलि को सम, सुन्दर और धवल करके पुष्पदन्त का यश नाम किया।
अपरोऽपि तुर्यनादैर्जयघोषैर्गन्धमाल्यधूपायैः । भूतपतिरेष इत्याहूतो भूतैर्महं कृत्वा ||१२८ ।।
अन्वयार्थ- (अपरोऽपि) दूसरे मुनिराज भी (भूतैः) देवों द्वारा (तूर्यनादैः) तूर्यनादों द्वारा (जयघोष) 'जय हो' की घोषणाओं द्वारा तथा (गन्धमाल्य धूपाद्यैः) गन्धमाला धूपादिक द्वारा (महं कृत्वा) उत्सव करके (एष भूतपतिः) यह भूतपति हैं (इति आहूतः) इस प्रकार पुकारे गये।
अर्थ- दूसरे मुनिराज भी भूतजाति के देवों द्वारा तुरही वादन द्वारा, जयजय की घोषणाओं द्वारा तथा सुगन्धित मालाओं, धूपों द्वारा उत्सव समायोजित करके यह 'भूतपति' हैं इस प्रकार पुकारे गये।
स्वासनमृति ज्ञात्या मा भूत्संक्लेशमेतयोरस्मिन् । इति गुरुणा सञ्चिन्त्य द्वितीयदिवसे ततस्तेन ।। १२६ ।। प्रियहितवचनैरमुष्य तावुभायेय कुरीश्वरं प्रहितौ । तावपि नयभिदिवसै गत्वा तत्पत्तनमयाप्य ॥१३०॥ योगं प्रगृह्य तत्राषाढ़े मास्यसितपक्षपञ्चम्याम् । वर्षाकालं कृत्वा विहरन्तौ दक्षिणाभिमुखं ॥१३१ ॥ जग्मतुरथ करहाटे तयोः स यः पुष्पदन्तनाममुनिः। जिनपालिताभिधानं दृष्ट्याऽसौ भागिनेयं स्वम् ॥१३२॥ दत्वा दीक्षां तस्मै तेन समं देशमेत्य यनवासम् । तस्थौ भूतबलिरपि मथुरायां द्रविडदेशेऽस्थात्।।१३३॥
| श्रुतावतार
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