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देखकर, यह देवताओं का स्वरूप नहीं है- ऐसा सोचकर उन विद्यामंत्रों को व्याकरण विधि से शोधकर न्यून वर्ण वाले मंत्र में उचित वर्ण-मात्रादि जोड़कर तथा अधिक वर्णादि वाले मंत्र में से उचित वर्ण-मात्रा हटाकर शुद्ध विधि से आराधना की। अतः फिर से वे देवियाँ उनके सामने दिव्य रूप में केयूर (कड़ा) हार, नूपर करक, कटिमूत्र से सुन्दर शरीर वाली उनके सामने उपस्थित होकरबोलिये हमें क्या करना है- ऐसा बोली।
तावप्यूचतुरेतनास्माकं कार्य मस्ति तत्किमपि । ऐहिकपारत्रिकयोर्भवतीभ्यां सिध्यति यदव परम् ॥१२१ ॥ किन्तु गुरु नियोगादायाभ्यां विहितमेतदिति वचनम्।
श्रुत्या तयोरभीष्टं ते जग्मतुः स्वास्पदं देव्यौ ।।१२२ ।।
अन्ययार्थ- (तौ अपि ऊचतु) वे दोनों मुनिराज भी बोले- (अस्माकं) हम लोगों के (किमपि कार्य न अस्ति) कोई भी कार्य नहीं है। (यद भवतीभ्या) जो आप दोनों द्वारा (ऐहिक पारित्रकयो) इस लोक और परलोक सम्बन्धी (परमं सिद्धयति) जो अच्छी तरह सिद्ध करना हो। किन्तु (गुरुनियोगात) गुरु की आज्ञा से (आवाभ्यां एतद् विहितं) हम लोगों के द्वारा यह किया गया है (इति वचन) ऐसे वचन (तयोरभीष्टं) उन दोनों के अभीष्ट वचन सुनकर (ते देव्यौ) वे देवियाँ (स्वास्पदं) अपने स्थान को (जग्मतुः) चली गई।
अर्थ- वे दोनों मुनिराज (पुष्पदन्त-भूतवलि) बोले कि हमारा तो कोई भी कार्य नहीं है, न इस लोक सम्बन्धी न परलोक सम्बन्धी- जो आए लोगों के द्वारा सिद्ध होना हो। परन्तु गुरु के आदेश से ही हम लोगों ने मंत्र द्वारा आपको सिद्ध किया है। उन मुनिराजों के इन अभीष्ट वचनों को सुनकर ने दोनों देवियाँ अपनेअपने स्थान को चली गयीं।
विद्यासाधनमेवं विधाय तोषात्ततो गुरोः पार्श्वम् । गत्वा तौ निजवृत्तान्तमयदतां तद्यथावृत्तम् ॥१२३ ।।
अन्वयार्थ- (एवं विद्या साधनं विधाय) इस प्रकार विद्या का साधन कर (ततो) तदनन्तर वे (तोषात्) बड़ी सन्तुष्टि पूर्वक (गुरोः पार्श्वम् गत्वा) गुरु धरसेनाचार्य के पास जाकर (तौ) उन दोनों मुनिराजों ने (यथावृत्तम्) जैसा-जैसा हुआ, अपना समस्त वृत्तान्त गुरु के निकट (अवदताम) कहा।
भुताक्तार