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हीनाक्षरविद्यासाधकस्य देव्ये कलोचनाग्रे ऽस्थात् । अधिकाक्षरविद्यासाधकस्य सा दन्तुरा तस्थौ ॥११७॥
अन्वयार्थ- (हीनाक्षर विद्या साधकस्य) हीन अक्षर वाले मंत्र साधक के (अने) आगे (एकलोचना देवी) एक आँख वाली देवी (अस्थात्) उपस्थित हो गई। (अधिकाक्षर साधकस्य) अधिक अक्षर वाले मंत्र साधक के आगे (सा) वह देवी (दन्तरा लम्बे-लम्बे दाँतों वाली उपस्थित हुई।
अर्थ-जिन मुनिराज ने हीन अक्षर वाले मंत्र की आराधना की थी. उनके सामने सिद्ध देवी एक नेत्रवाली प्रकट हुई। जिन मुनिराज ने अधिकाक्षर युक्त मंत्र || सिद्ध किया था उनके सामने लम्बे-लम्बे दाँतों वाली देवी प्रकट हुई।
दृष्ट्या ताविति देव्यौ न देवतानां स्वभाव एष इति । प्रविचिन्त्य ततो विद्यामंत्रव्याकरणयिधिनैव ॥११८॥ प्रस्तार्य न्यूनाधिकवर्ण क्षेपापचयविधानेन । पुनरपि पुरतश्च तयोर्देव्यौ ते दिव्यरूपेण ॥११६ ॥ के यू रहारनपुर क ट क क टीसूत्रभासुरशरीरे ।
अग्रे स्थित्या यदतां किं करणीयं प्रवदतेति ॥१२० ।।
अन्ययार्थ- (तौ) वे दोनों मुनि (देव्यौ इति दृष्ट्वा) उन देवियों को इस तरह विकृत देखकर. (देवतानां एष) देवताओं का यह (स्वभावः न) स्वभावस्वरूप नहीं है (इति प्रविचिन्त्य) ऐसा सोचकर (विद्या मंत्र) उन विद्या मंत्रों को (व्याकरण विधिना) व्याकरण की विधि से (प्रस्तार्य) प्रस्तुत करके (न्यूनाधिकवर्णक्षेपापचय विधानेन) न्यून वर्ण वाले मंत्र में उचित रीति से जोड़कर तथा अधिक वर्ण वाले मंत्र में से उचित वर्ण हटाकर आराधना करने से (पुनरपि) फिर से (तयो पुरतः) उनके सामने (ते देव्यौ) चे दानों देवियाँ (दिव्य रूपेण) दिव्य रूप लेकर (केयूरहारनूपुर कटक कटीसूत्र भासुर शरीरे) केयूर, हार, नूपुर, कटक तथा कटिसूत्र से शोभायमान शरीर वाली (अग्रे स्थित्वा) आगे खड़ी होकर (वदतां) बोली (किं करणीय) हमें क्या करना है (प्रवदत इति) बोलिये, ऐसा बोला।
अर्थ-वे दानों मुनिराज उन उपस्थित हुई विकृत शरीर वाली देवियों को
झुतायतार