________________
अर्थ-आचार्य गौतम इन्द्रभूति उस छात्रवेशधारी इन्द्र से जिसने "षद्भत्र्य, नवपदार्थ" वाली 'आर्या' का अर्थ उनसे पूछा था- कहते हैं कि- 'आओ हम दोनों वहीं चलें' ऐसा कहकर उस इन्द्र को आगे करके अपने दो भाइयों-वायुभूति एवं अग्निभूति के साथ भगवान् वर्द्धमान-महावीर की समवशरण सभा की और जाते हैं।
दृष्ट्वा मानस्तम्भं विगलितमानोदयो द्विजन्माऽऽसीत्। भातृभ्यां सह जिनपतिमवलोक्य परीत्य तं भक्त्या ||५८ ॥ नत्वा नुत्या त्यक्त्याऽशेषपरिग्रहमनाग्रहो दीक्षाम् । आदायानिमगणभृबभूव सप्तर्द्धिसम्पन्नः ॥५६॥
अन्वयार्थ- (द्विजन्मा) वह संस्कार पवित्रित जन्म वाला ब्राह्मण इन्द्रभूति (मानस्तम्भ) मानस्तम्भ को (दृष्ट्वा ) देखकर (विगलित मानोदय) गल गया है मान जिसका ऐसा (भ्रातभ्यां) दोनों वायुभूति एवं अग्निभूति भाइयों के साथ निरभिमानी / आसील) (जिनपति सापडीतराम, जिनेन्द्र बर्द्धमान महावीर के (अवलोक्य) दर्शन करके (भक्त्या) भक्ति से (तं) उन्हें (परीत्य) प्रदक्षिणा देकर (नत्वा) नमस्कार कर (नुत्वा) स्तुति कर (अनाग्रह) मिथ्या आग्रह से रहित हुआ (अशेष परिग्रह) सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर (दीक्षा आदाय) दीक्षा ग्रहण कर (सप्तर्द्धि सम्पन्नः) सप्त ऋद्धियों से संपन्न होकर (अग्रिम गणभृत) प्रथम गणधर (बभूव) हुआ।
अर्थ-माता के उदर से जन्म लेने के साथ ही संस्कारों से भी पवित्र जन्म वाला वह आचार्य इन्द्रभूति अपने दोनों भाइयों-वायुभूति एवं अग्निभूति के साथ मानस्तम्भ के दर्शन से नष्ट हो गया है मान जिसका निरभिमानी अत्यन्त विनत स्वभाव वाला हुआ जिनेन्द्र वीर-वर्द्धमान के दर्शन कर भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा देकर, प्रणाम कर तथा स्तुति कर, परिग्रह को छोड़कर, पूर्व मिथ्याधारणाओं को तिलाञ्जलि देकर, दीक्षाग्रहण कर बुद्धि, चारण, विक्रिया, बल, औषध, रस आदि सप्त महा ऋद्धियों से संपन्न हुआ तथा भगवान् का प्रथम (मुख्य) गणधर हो गया। उसके दोनों भाई वायुभूति, अग्निभूति भी इसी तरह गणधर बन गये।
३४
श्रुतावतार .