________________
नक्षत्रो जयपालः पाण्डुर्दुमसेनक सनामानौ । एते पञ्चापि ततो बभूवुरेकादशाङ्गधराः ॥८१ ।।
अन्ययार्थ- (ततेः) तदनन्तर (नक्षत्रः) नक्षत्र (जयपाल: जयपाल) (पाण्डुः) पाण्डु (द्रुमसेन कंसनामानौ) द्रुमसेन और कंस नामक (एते पञ्च) ये पाँच (एकादशाजधराः) ग्यारह अंगधारी (बभूवुः) हुए।
अर्थ करने का , जमाल, दु. हुसेन और कंस ये पाँच आचार्य ग्यारह अंगधारी हुए।
विंशत्यधिक वर्षशतद्वयमेषां बभूव युगसंख्या ।
आचाराङ्गधराश्यत्यारस्तत उद्भयन् क्रमशः ।।१२॥ अन्वयार्थ- (एषां युग संख्या) इनकी समय संख्या (विंशत्यधिक) बीस अधिक वर्ष (शतद्वय) दो सौ वर्ष अर्थात् दो सौ बीस वर्ष (बभूव) थी (ततः) तदनन्तर (क्रमशः) क्रम से (चत्वारः) चार (आचारान धराः) आचाराज प्रथम अंग के धारी (उद्भवन्) उत्पन्न हुए |
अर्थ-इनकी सबकी समय संख्या दो सौ बीस वर्ष कुल मिलाकर थी। इसके बाद क्रम से चार आचार्य मात्र आचारान प्रथम अंग श्रुत के ज्ञानी हुए।
प्रथममस्तेषु सुभद्रोऽभयभद्रोऽन्याऽपरोऽपि जयपाहुः । लोहार्योऽन्त्यश्चैतेऽष्टादशवर्षयुगसंख्या ||६३ ।।
अन्वयार्थ- (तेषु) उन चारों में (प्रथमः) पहला (सुभद्र) सुभद्र (अन्यः) दूसरा (अभयभद्र) अभयभद्र (अपरः) इसके बाद तीसरा (जयबाहु) जयबाहु (अन्यश्च लोहार्यः) और अन्तिम लोहार्य (एते अष्टादश वर्ष युगसंख्या) इनकी समय संख्या अठारह वर्ष है।
अर्थ-उन चारों आचाराज प्रथम श्रुत के ज्ञानियों में प्रथम सुभद्र, द्वितीय अभयभद्र, तृतीय जयबाहु और चौथे लोहार्य हुए इन चारों का सम्मिलित समय अठारह वर्ष था।
विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते ।
आरातीया यतयस्ततोऽभयन्ननपूर्वदेशधराः ||८|| अन्वयार्थ- (ततः) इसके पश्चात् (विनयधरः) विनयधर (श्रीदत्तः) श्रीदत्त
श्रुतावतार