Book Title: Shrutavatar
Author(s): Indranandi Acharya, Vijaykumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 29
________________ अथ भगवान् किंजीवोस्ति नास्ति या किंगुणः कियान्कीदृक् इत्यादिषडयुतप्रमितं तद्गणेटप्रश्नपर्यन्ते ॥ ६० ॥ जीवोऽस्त्यनादिनिधनः शुभाशुभविभेदकर्मणां कर्ता । सदसत्कर्मफलानां भोक्ता स्वोपात्ततनुमात्रः ॥६१॥ उपसंहरण विसर्पणधर्म ज्ञानादिभिर्गुणैर्युक्तः । धौय्योत्पत्तिव्ययलक्षणः स्वसंवेदनग्राह्यः ।। ६२ ।। नोकर्म कर्म पुद्गलमनादिरूपात्तकर्म सम्बन्धात् । गृह्णन् मुञ्चन् भ्राम्यन् भवे भवे तत्क्षयान्मुक्तः ॥ ६३ ॥ इत्याद्यनेकभेदैस्तथा स जीवादिवस्तुसद्भावम् । दिव्यध्वनिना स्फुटमिन्द्रभूतये सन्मतिरवोचत् ॥ ६३ ॥ अन्वयार्थ - ( अथ) इन्द्रभूति गौतम के प्रमुख गणधर बनने पर (जीवः किं अस्ति) क्या जीव है (वा नास्ति) अथवा नहीं है ( कि गुणः ) अगर है तो वह किस गुणवाला है ( क्रियान् ) वह कितने प्रमाण है अथवा कितने हैं (कीदृक् ) वह कैसा है (इत्यादि षडतप्रमितं ) इत्यादि छह प्रमाण (तद्गणेटप्रश्नपर्यन्ते) उनके गणधर प्रमुख के प्रश्नों के अन्त में (जीवः अस्ति ) जीव है (जीवः अनादि निधनः ) अनादि अनिधन है- आदि अन्तरहित है। (शुभाशुभ विभेद कर्मणां कर्ता) शुभ और अशुभ भेदों से युक्त कर्मों का कर्ता है (सदसत्कर्मफलानां भोक्ता ) अपने शुभ या अशुभ कर्मों के फल का भोगने वाला है। (स्वोपात्त तनुमात्रः ) शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर के प्रमाण छोटा या बड़ा है (उपसंहरण- विसर्पण) स्वभाव वाला (ज्ञानादिभिर्गुणैर्युक्तः ) ज्ञान दर्शन आदि गुणों से युक्त (ध्रौव्योत्पत्तिव्ययलक्षण ) ध्रौव्य उत्पाद, व्यय द्रव्य लक्षण युक्त ( स्वसंवेदनग्राह्यः ) स्व संवेदन से ग्रहण करने योग्य ( अहं प्रत्यय से ज्ञान में आनेवाला) (नोकर्मकर्मपुद्गलमनादिरूपात् तत् कर्म सम्बन्धात्) नोकर्म शरीर इन्द्रियादि, कर्म - ज्ञानावरणादि तथा रागादि रूप पुद्गलों को अनादि काल से कर्म रूप सम्बन्ध से (गृह्णन् ) ग्रहण करते हुए (मुञ्चन् ) उन कर्म शरीरादि को भोग लेने पर छोड़ते हुए ( भवे भवे) भव भव में अनेक जन्मों द्वारा गतियों में घूमते हुए (तत्क्षयात्) उन कर्मों के सर्वथा क्षय से मुक्त हुआ इत्यादि ( अनेक भेदैः ) इस प्रकार अनेक भेदों से ( जीवादि वस्तु सद्भावम् ) जीव पुद्गल - धर्म-अधर्म - श्रुतावतार ३५

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