Book Title: Shrutavatar
Author(s): Indranandi Acharya, Vijaykumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 27
________________ सिद्धार्थनन्दनस्य छात्रस्त्वं चेन्महेन्द्रजालविदः । देवागमं जनस्य प्रतिदर्शयतो वियन्मार्गे ।। ५५ ।। अन्वयार्थ - (त्वं चेत्) यदि तुम सिद्धार्थनन्दन वर्द्धमान के शिष्य हो तो ( वियन्मार्गे) आकाशमार्ग में (जनस्य ) जन समुदाय को (देवागमं ) देवों के आगमन को (प्रतिदर्शयतः) दिखाने वाले ( महेन्द्रजालावदः) महान् इन्द्रजाल को जानने वाले जादूगर के ( छात्रः ) शिष्य (असि ) हो । अर्थ - यदि तुम उन सिद्धार्थनन्दन वर्द्धमान के छात्र हो तो निश्चय ही आकाशमार्ग में देवों के आगमन द्वारा लोगों को दिखाने वाले एक बड़े जादूगर के ही शिष्य हो । तत्तेनैव विवादं सार्धं प्रकरोमि किं त्वया कार्यम् । त्वत्तो जयापजययोर्ममैव विद्वत्सु लघुता स्यात् ॥ ५६ ॥ अन्वयार्थ - (तत्) तो (त्वया) तुमसे (किं कार्यम् ) क्या करना ( तेनैव ) उसी के (सार्द्ध) साथ (विवाद ) शास्त्रार्थ (प्रकरोमि ) करूँगा । ( त्वत्तो) तुमसे (जयापजययोः) जय या पराजय में (ममैव ) मेरी ही (विद्धत्सु) विद्वानों की गोष्ठी में (लघुता) छोटापन (स्यात्) सिद्ध होगा । अर्थ- तो तुमसे क्या कहा जाय ! मैं तुम्हारे गुरु उसी सिद्धार्थनन्दन वर्द्धमान कुमार से ही तुम्हारे द्वारा पढ़ी गयी आर्या पर विवाद करूँगा | तुम्हारे साथ विवाद होने पर जय-पराजय पर विद्वानों में मेरी लघुता (हलकापन) होगी। क्योंकि विद्वानों की विद्वत्ता विद्वानों से वार्तालाप में ही सुरक्षित रहती है। अल्पज्ञों के साथ विवाद से तो हलकापन प्रदर्शित होता है। एहि व्रजाव इत्यभिधाय पुरोधाय गौतमः शक्रम् । समवसृतिं भ्रातृभ्यामायाद्वायुवह्निभूतिभ्याम् ॥५७॥ अन्वयार्थ - ( गौतमः ) गौतम इन्द्रभूति आचार्य ( एहि ) आओ (ब्रजाव ) हम दोनों चलें (इत्यभिधाय) ऐसा कहकर (वायुवह्निभूतिभ्याम्) वायुभूति एवं अग्निभूति दोनों (भ्रातृभ्याम्) भाइयों के साथ (समवसृतिं) समवशरण सभा को ( आयात्) गया । श्रुतावतार ३३

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