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के नाल को काटने की विधि बताई। बादलों के आकाश में धुमड़ने पर भय तथा आश्चर्य न करने का उपदेश दिया।'
अथ भाजिमपम रुपमा राति नन्दनो गृभभः । तीर्थकृतामाद्योऽसौ प्रवर्त्य भरते भृशं तीर्थम् ॥२० ।। निर्वाणमवाप तत: पञ्चाशल्लक्षकोटिमितिवाद्धिः । यावदविच्छिन्नतया समागतं तत् श्रुतं सकलम् ॥२१॥
अन्वयार्थ-(अथ) तदनन्तर (नाभिराजनृपते) सजा नाभिराज से (मरुदेव्यां) मरुदेवी में (वृषभः नन्दनः) वृषभ नामक आनन्द लेने वाला पुत्र (व्यजनि) उत्पन्न हुआ। (असौ) वह (तीर्थकृतां) तीर्थङ्करों में (आद्यः) पहला था उसने (भरते) भरत क्षेत्र में (भृशं) अत्यधिकता (तीर्थ) धर्म तीर्थ को (प्रवर्त्य) चलाकर (निर्वाण) मुक्ति को (आप) प्राप्त किया (ततः) उस समय से (पञ्चाशल्लक्षकोटिमितिवार्द्धिः) पचास लाख करोड़ सागर (यावत्) तक (तत्) वह (सकलं) सम्पूर्ण (श्रुतं) द्वादशाङ्ग वाणी रूप श्रुत-आगम (अविच्छिन्नतया) अविरल रूप से (समागत) चलता रहा।
अर्थ-- तदनन्तर अन्तिम कुलकर राजा नाभिराज और मरुदेवी नाम की रानी से आनन्द देने वाला ऋषभ नामक पुत्र हुआ। वह तीर्थंकरों में पहला था । उसने इस भरत क्षेत्र में अत्यधिक रूप में समीचीन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर गिर्वाण को प्राप्त किया। उसके बाद पचास लाख करोड़ सागर पर्यत वह श्रुत (तीर्थंकर की वाणी से उद्भूत श्रुतज्ञान) अविच्छिन्न रूप से चलता रहा।
जातस्ततोऽजितजिनः शिष्येभ्यः सोऽपि सम्यगुपदिश्य । तत् श्रुतमखिलं प्रापनिर्वाणमनुत्तरं तवत् ॥२२ ।।
अन्ययार्थ- (ततः) तदन्तर (अजितजिनः) द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ जिनेन्द्र (जातः) उत्पन्न हुए। (सोऽपि) वह भी (शिष्येभ्यः) अपने शिष्यों के लिए (तत्) वह (सकलं) सम्पूर्ण (श्रुतं) (आदि जिनेन्द्र से परम्परा रूप में चला आया हुआ) आगम रूप श्रुतज्ञान (सम्यग्) भली प्रकार (उपदिश्य) उपदेश देकर बताकर (तद्वत्) उसी प्रकार, आदिनाथ भगवान् की तरह, (अनुत्तर) उपमा रहित-श्रेष्ठ (निर्वाण) सिद्धिको (प्राप्त) प्राम हुए।
अर्थ-तदन्तर आदिनाथ श्री बृषभ जिनेन्द्र के पश्चात् अजित नाथ द्वितीय
श्रुतावतार