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अर्थ-पल्य के चतुर्थ भाग परिमित काल तक तीर्थ विच्छेद रहने पर श्री शीतलनाथ दशावें तीर्थंकर हुए उन्होंने उस श्रुत को (जिनेन्द्र वाणी में प्रकट श्रुतागम रूप धर्म को) फिर से अपनी दिव्यध्वनि द्वारा प्रकट किया।
शीतलतीर्थे सागरशतेन षट्षष्ठि लक्षमितवर्षेः । षड्वंशत्या वर्षसहसैन्यूँ नैकयाद्धिकोटिमिते ।।२७ ॥ पल्यार्धमात्रकाले शेषे तत्पुनरजन्यविच्छिनम् । मितवति गतयति काले ततोऽभवत्तीर्थकृच्छ्रेयान् ॥२८॥
अन्वयार्थ- (शीतल तीर्थे) शीतलनाथ दशवे तीर्थकर के तीर्थ के (सागर शतेन) सौ सागर (षट्षष्टि लक्ष मितवर्षे:) छ्यासठ लाख (षविंशत्या) छब्बीस (वर्ष सहने) हजार वर्ष (न्यूनैक वार्धिककोटिमिते) कम एक करोड़ सागर परिमित अन्तराल में (पल्याई मात्र काले मितवति शेषे काले गतवति) पल्य के आधे प्रमाण शेष काल के बीतने पर. दर शीतलनाथ भगवान द्वारा टिष तीर्थ धर्म अविच्छिन्न रहा। हाँ आधे पल्य की वह धर्म परम्परा टूट गयी, तब (श्रेयान तीर्थकृत्) श्रेयांस नाथ ११वें तीर्थकर (अभवत्) हुए।
अर्थ-शीतलनाथ दशवें तीर्थंकर के तीर्थ के जब सौ सागर छ्यासठ लाख, छब्बीस हजार वर्ष कम एक करोड़ सागर प्रमाण अन्तराल में जब आधा पल्य तक धर्म परम्परा अविछिन्न रही तब श्री श्रेयांसनाथ ग्यारहवें तीर्थंकर उत्पन्न हुए । अर्थात् शीतलनाथ भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म परम्परा सौ सागर छ्यासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक करोड़ सागर तक अविच्छिन्न चली पर अन्त में आधा पल्य तक टूटी रही अनन्तर ग्यारहवें श्रेयांसनाथ तीर्थंकर हुए।
श्रेयस्तीर्थमपि चतुष्पञ्चाशत्सागरोपमप्रमिते । पल्यत्रिचतुर्भागे शेषे तत्पुनरवापान्तम् ॥२६॥
अन्वयार्थ- (तत्) वह (श्रेयस्तीर्थमपि) श्रेयांसनाथ ग्यारहवें तीर्थंकर द्वारा समुपदिष्ट तीर्थ धर्म (अपि) भी, (चतुपञ्चाशत्सागरोपम प्रमिते) चौवन सागर प्रमाण काल में (पल्यत्रिचतुर्भाग) पल्य के ३/४ भाग के शेष रहने पर (अन्तम्) समाप्ति को (अवाप) प्राप्त हो गया।
अर्थ-वह श्रेयांसनाथ ग्यारहवें तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित श्रुत रूप तीर्थ (धर्म)
श्रुतावतार