Book Title: Shrutavatar
Author(s): Indranandi Acharya, Vijaykumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 4
________________ रूपान्तर एवं लिपि आदि के कारण ही प्राम होता है। आ. अर्हदबलि द्वारा जैन परम्परा में विभिन्न संघों की स्थापना आदि का भी संक्षेप में यहाँ वृत्तान्त दिया गया है। आचार्य अर्हबलि के बाद माघनन्दिका भी यहाँ उल्लेख है। इसके बाद आचार्य धरसेन और फिर इनके द्वारा आचार्य पष्पदन्त और 'भूराबलि को प्रदत्त श्रुतज्ञान, पक्ष्यण्डागम नामक ग्रन्धराज पुस्तकारुढ़ होने, श्रुत पंचमी पर्व प्रचलित होने आदि से लेकर आचार्य गुणधर एवं उनके द्वारा रचित कसायपाहुडसुत्त तथा दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर रचित धवला एवं जमधवला टीका आदि का विस्तृत परिचय जिस भाषा, भाव और शैली में प्रस्तुत किया गया है वह मर्मस्पर्शी एवं हृदयग्राहो है। इन गौरवशाली अपनी प्राचीन परम्पराओं का जब-जब हम अध्ययन करते हैं तब-तब हमें षट्रखण्डागम के प्राक्कथन (भाग १ पृष्ठ ५-७) में सुप्रसिद्ध मनीषी विद्वान स्व. डॉ. हीरालाल जैन द्वारा प्रस्तुत मार्मिक विचारों की ओर ध्यान जाता है. जिसमें उन्होंने कहा है कि'बुद्ध के पवित्र और दृढ़ता के लिए हमारा ध्यान पुनः हमारे तीर्थकर भ. महावीर और उनकी धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि तक की आचार्य परम्परा की ओर जाता है, जिसके प्रसाद से समें यह साहित्य प्राप्त हुआ है। तीर्थंकरों और केवलज्ञानियों का जो विश्वव्यापी जान द्वादशांग साहित्य में प्रधित हुआ घा, उससे सीधा सम्बन्ध रखने वाला केवल इतना हो साहित्यांश जचा है. जो 'स, जयधन्नता और हाल नसताने लाले गन्थों में निम्रद्ध है। दिगम्बर मान्यतानुसार शेष सब काल के गाल में समा गया। किन्तु जितना भी शेष बचा है वह भी विषय और रचना की दृष्टि से हिमालय जैसा विशाल ओर महोदधि जैसा गंभीर है। हम ऐसी उच्च और विपुल साहित्यिक सम्पत्ति के उत्तराधिकारी है- इसका हमें भारी गौरव है। आजकल साहित्य रक्षा का इससे जड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं कि ग्रंधों की हजारों प्रतियों छपाकर सर्वत्र फैला दी जाय ताकि किसी भी अवस्था में उनका अस्तित्व बना रहे। इस तरह श्रुन (शास्त्र) परम्पर। की रक्षा का सबसे अच्छा उपाय है- उसके अध्ययनअध्यापन एवं स्वाध्याय की परम्परा जीवित रखना और दुर्लभ साहित्य का प्रकाशन करना । इस दृष्टि में पुज्य १०- आचार्यश्री विमलसागरजी की हीरक जयन्ती की सर्वाधिक सार्थकता इस उपलक्ष्य में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्धों का प्रकाशन है। इस योजना के मूलप्रेरक पूज्य उपाध्याय श्री भरतसागरजी एन्त्र पूज्य आर्यिका स्याद्वादमती माताजी के इस योजना को साकार रूप देने के लिए कृतज्ञ हैं। श्री अनेकान्त विद्वत्-परिषद्. सोनागिरि के माध्यम से प्रकाशित इस ग्रन्थ के अनुवादक मान्यवर पं. विजयकुमारजी शास्त्री एव सम्पादक उपाध्याय श्री भरतसागरजी महाराज हैं। उत्साही युवा विद्वान व्र. धर्मचन्द्र शास्त्री तथा व्र. कु. प्रभा पाटनी बधाई के पात्र हैं। इसी तरह स्तरीय, दुर्लभ तथा उपयोगी सत्साहित्य का प्रकाशन. प्रचार-प्रसार और स्वाध्याय निरन्तर होता रहे, यही हमारी शुभ भावना है। साथ हो विद्वानों और समाज के कर्णधारों से यह भी आग्रह है कि वे इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों को विद्यालयों एवं विश्वविद्यालय स्तर के पाठ्यक्रमों में भी सम्मिलित कराने हेतु प्रयत्न अवश्य करें, ताकि इनके महत्व का सही मूल्यांकन हो सके। डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी दि. २८-११.१० अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग निवास. पी ३२ लेन नं. १३ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय रवीन्द्रपुर.. वाराणसी-५ वाराणसी- २२१००२ श्रुतावतार

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