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श्रावकाचार-संग्रह
आसमयमुक्ति मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥९७ मूधरुहमुष्टि वासोबन्धं पर्यवन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥९८ एकान्ते सामयिकं निक्षेपे वनेष वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।९९ व्यापार-वैमनस्याद् विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्या । सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभश्ते वा ॥१०० सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनसलसेन चेतव्यम व्रतपञ्चकपरिपूरणकारणमवधानयक्तेन।।१०१ सामयिकं सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपमष्टमनिरिव गही तदा याति यतिभावम १०२ शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुऊरनचलयोग।।५०३ अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके१०४ ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना । इन कार्योको करनेसे सीमाके बाहर स्वयं नहीं जानेपर भी व्रतमें दोष लगता हैं ।।९६।। अब सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं सामायिकका समय पूर्ण होने तक हिंसादि पाँचों भावोंका पूर्णरूपसे अर्थात् मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करनेको आगमके ज्ञाता पुरुष सामायिक कहते हैं।९७॥ केशबन्धन, मष्टिबन्धन, वस्त्रबन्धन, पर्यङ्कासनबन्धन, स्थान ( खडे रहना ) और उपवेशन (बैठना ) इनको सामायिकके जानकार सामायिकका समय जानते हैं || ९८ || भावार्थ-जिस प्रकार तीसरी प्रतिमाधारी श्रावकको कमसे कम दो घडी और अधिकसे अधिक छह घडी सामायिककालका निर्देश किया गया हैं उस प्रकारका बन्धन बारहव्रतोंका अभ्यास करनेवाले गृहस्थके लिए नहीं हैं | गृहस्थ सामायियका अभ्यास धोरेधीरे अल्पकालसे प्रारम्भ करता है और उत्तरोत्तर समयको बढाता जाता है। उसका मुख्य लक्ष्य आर्त और रौद्रध्यानसे तथा संक्लेशभावसे बचकर आत्मामें स्थिर होने का है । प्रारम्भिक अभ्यासीको जबतक किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती है, तभी तक वह सामायिक में स्थिर होकर बैठ सकता है। सामायिक प्रारम्भ करने के पूर्व वह शिर-केश चोटी आदिकी गाँठ लगाता हे पहिने और ओढे हुए वस्त्रकी गाँठ लगाता है, जिसका भाव यह है कि सामायिक करते समय वायुसे उडकर ये मनको व्याकुळ न करे । सामायिकमें बैठते हुए पद्मासनमें हाथोंकी मुट्ठिको बाँधता है अर्थात् दाहिनी हथेलीको बाई हथेलीके ऊपर रखता है तथा कभी खडे होकर भी सामायिक करता है | इन सबमें यही भाव निहित है कि जब तक मुझे बैठने या खडे रहने में आकुलता नहीं होगी, तब तक में सामायिक करूँगा । इस प्रकार जबतक मेरे केशबन्ध आदि रहेगे, तबतक मैं सामायिक करूँगा, ऐसी मर्यादाको सामायिकका काल जानना चाहिए | जहाँपर चित्तमें विक्षोभ उत्पन्न न हो ऐसे एकान्त स्थानमें, वनोंमें, वसतिकाओंमें अथवा चैत्यालयोंमें प्रसन्न चित्तसे सामायिककी वृद्धि करना चाहिए ॥९९|| उपवास अथवा एकाशनके दिन गहव्यापार और मनकी व्यग्रताको दूर करके अन्तरात्माम उत्पन्न होनेवाले विकल्पोंको निवृत्ति के साथ सामायिकका अनुष्ठान प्रारम्भ करे ।। १००॥ पुनः आलस्य-रहित होकर सावधानीके साथ पाँचों व्रतोंकी पूर्णता करने के कारणभूत सामायिकका प्रतिदिन अभ्यास बढाना चाहिए ॥१०१|| यतः सामायिककालमें आरम्भसहित सभी परिग्रह नहीं होते हैं। अतः उस समय गृहस्थ वस्त्रसें वेष्टित मुनिके समान मुनिपनेको प्राप्त होता है ||१०|| सामायिकको प्राप्त हुए गृहस्थोंको चाहिए कि वे सामायिकके समय शीत, उष्ण और दंश-मशक आदि परिषहको तथा अकस्मात् आये हुए उपसर्गको भी मान-धारण करते हुए अचलयोगी होकर अर्थात् मन-वचनकायकी दृढताके साथ सहन करे ||१०३।। सामायिकके समय श्रावकको ऐसा विचार करना चाहिए कि जिस संसारमें में रह रहा हूँ वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखरूप है और मेरे आत्म
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