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जिसमें देश के विभिन्न स्थानों से विद्वानों ने भाग लिया। अनेक गोष्ठियाँ सम्पन्न हुईं, जिनमें प्राच्यविद्या से सम्बन्धित शास्त्रों पर गम्भीर चर्चाएँ हुईं। अनेक शोधपत्र प्रस्तुत किये गये। इसीलिए इस पत्रिका को ‘संस्कृतवर्ष-विशेषाङ्क' के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। कुलपति प्रो. राममूर्ति शर्मा के सौजन्य एवं मार्गदर्शन से ही 'श्रमणविद्या' संकाय-पत्रिका आज इस रूप में प्रस्तुत हो सकी है। उन्होंने कृपापूर्वक इस पर अपनी शुभाशंसा लिखकर इसका गौरव बढ़ाया है, अत: उनके प्रति विनम्र भाव से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
श्रमणविद्या संकाय के सामूहिक प्रयत्न की प्रस्तुति एवं पारस्परिक सौहार्द और सहयोग से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। अत: इस भाग के सम्पादकमण्डल तथा लेखन-सम्पादन सहयोग के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। प्राच्यविद्या के विश्रुत विद्वानों ने अपने निबन्धों से 'श्रमणविद्या' पत्रिका को समृद्ध बनाया है, उनके प्रति विनतभाव से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। प्रकाशन संस्थान के निदेशक डॉ. हरिश्चन्द्र मणि त्रिपाठी के हम विशेष आभारी हैं, जिन्होंने संस्कृतवर्ष के कार्य-क्रमों का सङ्क्षिप्त विवरण देकर पत्रिका के सार्थकभाव को सिद्ध किया है, साथ ही जिनके सहयोग से 'श्रमणविद्या' पत्रिका का तीसरा भाग सुसज्जित रूप में प्रकाशित हो सका है। प्रकाशन से सम्बन्धित डॉ. हरिवंश पाण्डेय, डॉ. ददन उपाध्याय एवं अन्य सहयोगीगण को साधुवाद देता हूँ, जिन्होंने प्रूफ संशोधन आदि में सहायता की है। 'श्रमणविद्या' पत्रिका के इस अंक को स्वल्प समय में इतने आकर्षक रूप में मुद्रित करने हेतु श्रीजी कम्प्यूटर प्रिंटर्स के संचालक श्री अनूप कुमार नागर को सस्नेह साधुवाद प्रदान करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अन्य जिनका भी सहयोग रहा है, उन सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। सभी प्रकार की सावधानी रखने के बाद भी त्रुटियाँ सम्भव हैं, विद्वज्जन उनके परिमार्जनपूर्वक इसे स्वीकार करेंगे।
वाराणसी गुरुपूर्णिमा, वि.सं. २०५७
ब्रह्मदेव नारायण शर्मा
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